________________ को छुपाये बिना सभी कार्यों में प्रवृत्त बनता है। गुरु के वचन को पालने में अपना कल्याण समझता है। संवर करता है। शुद्धभिक्षावृत्ति से जीवन को यापन करता है। शास्त्रोक्त विधि के अनुसार स्वाध्याय करता है। मृत्यु पर्यंत उपसर्गों परिषहों का सामना करने में तत्पर रहता है। इस प्रकार चारित्रवान् आत्मा की ज्ञान तथा क्रिया दोनों मोक्ष के रूप में ही होती है।३९ / इस प्रकार सामान्यरूप से चारों प्रकार के आत्माओं को मोक्ष के अधिकारी बताये हैं। लेकिन 'योगविंशिका' में आचार्य हरिभद्रसूरि स्थानादि पांच योग के अधिकारी 'देशविरति' और 'सर्वविरति' वाले को ही स्वीकार करते है। तथा अपुनर्बंधकादि में तो 'योग' का बीजमात्र ही मानते है। अतः उनमें योग का बीजमात्र होने से ही कुछ व्यवहारनय वाले योग मानते है, क्योंकि क्रियास्वरूप और ज्ञानस्वरूप ऐसे इन पाँच योगों का चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। उसी से जहाँ-जहाँ चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होगा, वहाँ-वहाँ योग होता है। ऐसी अन्वय व्याप्ति बनती है। उसी से दोनों चारित्रवाले को निश्चय ये योग होते है। तथा जहाँ-जहाँ चारित्रमोहनीय का क्षयोपशम नहीं होता है वहाँ-वहाँ योग भी नहीं होता / इस व्यतिरेक से अपुनर्बंधकादि को योग नहीं होता है। इसी कारण से अध्यात्म आदि प्रकार के योग की प्राप्ति भी चारित्र से आरंभ होती है। यह बात आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु में प्ररूपित की है। . देशादिभेदतश्चित्रमिदं चोक्तं महात्मभिः अत्र पूर्वोदित योगोऽध्यात्मादि संप्रवर्तते। अपुनर्बंधकस्यायं, व्यवहारेण तात्विकः अध्यात्मभावनारूपो, निश्चयेनोत्तरस्य तु॥४० अपुनर्बंधक आत्माओं को अध्यात्म और भावनारूप ऐसा यह योग व्यवहारनय से तात्त्विक होता है और निश्चयनय से उसके उत्तरगुणस्थानकवर्ती चारित्रवान् को तात्त्विक योग होता है। सकृद्बन्धक और आदि शब्द से द्विबन्र्धक जीवों के तो परिणाम अशुद्ध होने से निश्चय या व्यवहार इन दोनों नय की अपेक्षा से स्थानादि योग योगरूप में नहीं है परन्तु योग का आभास मात्र है ऐसा आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु में कहा है। सकृदावर्तनादीनामतात्त्विक उदाहृतः। प्रत्यपायफलप्रायस्तथा वेषादिमात्रतः॥४१ सकृदावर्तनादि जीव वेषादिमात्र ही होने से यह योग उनको अतात्त्विक होता है तथा अनर्थकारी फलवाला प्रायः होता है। इस प्रकार इन सब अधिकारियों के विषय में जब चिन्तन करते हैं तब यह प्रतीत होता है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग के अधिकारियों की अधिकारिता उनके अनुरूप ही बताई है तथा साथ ही जो योग के अनधिकारी है उनका भी स्पष्ट कथन किया है, साथ में सकृबंधक आदि अनधिकारियों के लिए यह भी कहा [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII षष्ठम् अध्याय | 400]