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________________ - (3) देशविरति - योगमार्ग का तीसरा अधिकारी चारित्रवंत आत्मा है। यह आत्मा (1) मार्गानुसारी (2) श्रद्धावान् (3) धर्मोपदेश के योग्य (4) क्रिया तत्पर (5) गुणानुरागी (6) शक्य में प्रयत्नशील होता है।४ . ये लक्षण देशचारित्री और सर्व-चारित्री के है। यद्यपि सम्यग् दर्शन प्राप्त करने के पश्चात् 2 से 9 पल्योपम काल बीत जाने के बाद चारित्र मोहनीयादि कर्म का क्षयोपशम होता है, तब देशविरति धर्म जीव प्राप्त करता है और संख्यात सागरोपम जाने के बाद सर्व विरति चारित्र को प्राप्त करता है।३५ यह जीवात्मा सद्धर्म में किसी भी प्रकार की स्खलना न हो वैसी आजीविका जीता है। निर्दोष दान देता है। वीतराग परमात्मा की पूजा करता है। विधिपूर्वक भोजन करता है। त्रिविध संध्या के नियम का पालन करता है। चैत्यवंदन करता है। मुनि भगवंतों की स्थान-पात्र-आहार आदि से भक्ति करता है। रात्रि में शयन करते समय पूरे दिन की दिनचर्या को याद करके दोषों की क्षमा मांगकर, संसार की अनित्यता, असारता विचारते हुए भावनाओं से भावित बनते हुए योगधर्म का अवसान में सेवन करता है। यदि किसी को यह शंका हो जाए कि गृहस्थ आरंभ समारंभ से युक्त होता है तो वह कैसे योग का पालन कर सके ? उसका समाधान करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि कहते है कि - देशविरति चारित्रवान् भी अपने जीवन में संसारस्थ होते हुए भी उपरोक्त नियमों का पालन सुचारु रूप से करते हुए मोक्षमार्ग गमन स्वरूप योग का सुंदर पालन कर सकता है। क्योंकि उन्होंने स्पष्ट कहा है कि गहस्थ आरंभ-समारंभवाला होने पर भी चैत्यवंदन, मुनिसेवा, धर्मविषयक श्रवण - ये सभी प्रवृत्तियाँ गृहस्थ के लिए योगरूप है। तो फिर भावनामय मार्ग को तो कैसे योग नहीं कह सकते। अर्थात् वह तो अवश्य योग स्वरूप है / इसमें किसी प्रकार का आश्चर्य नहीं है।२६ . अन्य दर्शनकारों ने भी कहा कि आत्मा ने जो-जो आश्रव कार्य किये हो, परंतु जिस कार्य के आगेपीछे समाधिरूप फल की प्राप्ति होती हो तो वे साश्रवकार्य भी समाधि कहलाते है। समाधि अर्थात् रागद्वेष की हानि, कषायों का पराभव यह उपरोक्त भावयोग से भिन्न नहीं है। अतः चारित्रवान् आत्मा को जिस प्रकार समाधि फल की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार मार्गानुसारितादि के द्वारा क्रमशः क्रियातत्परता स्वरुप भावयोग की भी प्राप्ति होती है। अन्यदर्शन जिसे समाधि कहते है उसे ही जैन दर्शनकार भावयोग कहते है।३७ . (4) सर्वविरतिवान् - योग का चतुर्थ अधिकारी सर्वविरतिवान् आत्मा है। चारित्रवान् आत्मा में जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा पालन की परिणति भिन्न-भिन्न होने से सामायिक की शुद्धि भी भिन्न-भिन्न होती है। अतः चारित्रवान् जीव अनेक प्रकार के है। लेकिन ये जीव अन्त में यावत् क्षायिकवीतरागी होते है। आचार्य हरिभद्र सामायिक की शुद्धि का स्वरूप बताते हुए कहते है कि सामायिक शुद्धि तब ही संभव है जब कि जीवात्मा शास्त्रविहित भावों और निषिद्धभावों दोनों कार्यों के प्रति समभाव को धारण करे / यदि शास्त्रों में निषिद्धभावों पर अल्पद्वेष तथा विहितभावों पर अल्प भी राग होता है तो सामायिक अशुद्ध बनती है।२८ यह चारित्रवान् आत्मा साधु-समाचारी सुरम्यरीति से पालन करता है। गुरु की आज्ञा में रहकर गुरुकुलवास करता है। यथायोग्य विनय करता है। नियतकाल का ध्यान रखकर निवास स्थान की प्रमार्जना करता है। शक्ति [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII षष्ठम् अध्याय | 399
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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