________________ गीता में भी श्रीकृष्णने अर्जुन से यही बात कही है कि - हे अर्जुन ! तीन गुणवाली प्रकृति का उपदेश देनेवाले वेद के ही वाक्य है और इसके द्वारा भोगसुखों की प्राप्ति होती है, जो अनित्य है। अतः त्रिगुणस्वरूप प्रकृति के व्यापार को छोड़कर भोग की लालच को छोड़कर नित्यसुख के स्थानरूप सात्विक प्रकृति को ग्रहण करके अबंधकभाव को भज। अबन्धकवाले को ही सत्यमार्ग प्राप्त करने की जिज्ञासा होती है।२५ आचार्य हरिभद्रसूरि भी इसी बात को दृढ करते हुए कहते है - मोक्ष के साथ जो क्रिया संबंध कराती है, वह योग कहलाता है। ऐसा महा मुनिवरों ने कहा है और वह योग प्रकृति का अधिकार का एक अंश से निवृत्त होने पर निश्चय से शीघ्र प्राप्त होता है।२६ इन सभी योगीन्द्रों ने अपुनर्बंधक आत्मा को योग का अधिकारी स्वीकारा है। अपुनर्बंधक अवस्था से निम्न कक्षावाले सकृद्बन्ध, द्विर्बन्धक और चरमावर्ती जीव भी योग के अधिकारी नहीं है, क्योंकि सकृद् बंधादि त्रिविध जीवों में योग्यता अत्यंत अल्प होने से अधिकारी नहीं है। ____ योगीदृष्टि समुच्चय में कुलयोगी और प्रवृत्तचक्र योगी महात्माओं को ही इस योग के अधिकारी कहे है, गोत्रयोगी और निष्पन्न योगी को नहीं।२७ ___ आचार्य हरिभद्र ने तो यहाँ तक कह दिया है कि - योग के ग्रन्थ पढ़ने के भी योग्य जीव ही अधिकारी होते है, अयोग्य आत्माओं को तो पढ़ने की भी आज्ञा नहीं देनी चाहिए। क्योंकि उल्टा अनर्थ हो जाता है। उन आत्माओं का शास्त्र भी उपकार नहीं कर सकते है।२८ (2) सम्यग्दृष्टि - योग का दूसरा अधिकारी सम्यग्दृष्टि आत्मा है। यह आत्मा यथाप्रवृत्तिकरण, . अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि करते हुए ग्रन्थिभेद करके औपशमिक आदि सम्यक्त्व प्राप्त करता है। ___ सम्यग्दृष्टि जीव को जिनोक्त तत्त्वो पर दृढ श्रद्धा होती है। दुःखी जीवों को द्रव्य से और भाव से जो दुःख होते है उनको दूर करने की इच्छा होती है। संसार की निर्गुणता जानकर विरक्त बनता है। मोक्ष की अभिलाषा और क्रोध तथा विषयतृष्णा का शमन करता है। इन पाँच गुणों का आविर्भाव होने से आत्मा का चित्त मोक्षमार्ग के चिन्तन में रहता है। फिर चाहे उसका शरीर संसार में रहे। लेकिन उनकी समस्त प्रवृत्तियाँ भाव से योगरूप होती है। अर्थात् सम्यग्-दृष्टि जीव की कुटुम्ब विषयक प्रवृत्ति भी कर्म-निर्जरा करनेवाली होती है, कारण कि इनका मन मोक्ष में होता है।३१ निश्चय दृष्टि से सर्व प्रवृत्तियों का आधार जीवात्माओं का चित्त होता है और चित्त मोक्ष की अभिलाषावाला होता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि की सभी प्रवृत्तियाँ मोक्षफल को देनेवाली होती है। उन प्रवृत्ति को शास्त्रकारों ने भावयोग कहा है।३२ सम्यग्दृष्टि आत्मा को सुनने की तीव्र जिज्ञासा होती है। प्रतिकूल सामग्री मिलने पर भी धर्म के प्रति अत्यंत प्रीति होती है, धर्म को कभी छोड़ता नहीं है। स्वस्थता समाधान तथा चित्त व्यवस्थित रहे वैसी देवगुरु की नियमित परिचर्या करता है ऐसा जीव अणुव्रत आदि का पालन करता हुआ योग विकास में वृद्धि को प्राप्त करता है।३३ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIVA षष्ठम् अध्याय | 398 )