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________________ योग की पूर्वभूमिका (पूर्वसेवा) भी इस अपुनर्बन्धक आत्माओं को ही होती है, कारण कि इन आत्माओं में आंशिक मुक्ति के अनुकूल शुभ भाव होते है। तथा पूर्वसेवा के योग से आत्मा योग रूप महाप्रसाद ऊपर चढ सकता है। अतः पूर्वसेवा यह महल का प्रथम सोपान है। अनुभवी योगीन्द्रों ने कहा है कि - निवृत्ति की दिशा में विशेष रूप से उन्मुख समाज में बहुतबार आवश्यक धर्म की उपेक्षा होने लगती है। हरिभद्रसूरि ने शायद यह तत्कालीन समाज में देखा और उन्हें लगा कि आध्यात्मिक माने जाने वाले निवृत्तिपरायण लोकोत्तर धर्म के नाम पर लौकिक धर्मों का उच्छेद कभी वंछनीय नहीं है, इसीलिए उन्होंने समाज के धारक एवं पोषक सभी धर्मों के आचरण को आवश्यक माना। जब वे गुरू-देव और अतिथि के आदर-सत्कार की बात कहते है तब केवल जैन गुरु, जैन देव या जैन अतिथि की बात नहीं कहते / वे तो गुरुवर्ग और माता-पिता-कलाचार्य तथा आप्तजनों को उद्दिष्ट करके कहते हैं। देव की बात भिन्न-भिन्न समाज में भिन्न-भिन्न वर्गों द्वारा पूजित सभी देवों को लक्ष्य में रखकर करते हैं। तथा अतिथिवर्ग में वे सभी अतिथियों का समावेश करते है। वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में लौकिक धर्म सद्गुणपोषक और सद्गुणवर्धक बनते है। धीरे-धीरे इन सद्गुणों के विकास के द्वारा लोकोत्तर धर्म और आध्यात्मिकता के सच्चे विकास में प्रवेश हो सकता है। यह बात उन्होंने एक दृष्टांत द्वारा समझाई है। वे कहते है कि अरण्य में भूला पडा हुआ यात्री पगदण्डी मिलने से धीरे-धीरे मुख्यमार्ग में पहुँच जाता है। वैसे ही योग का प्रथम अधिकारी लोकधर्म का यथावत् पालन करते हुए सुसंस्कार और विवेक की अभिवृद्धि से योग के मुख्यमार्ग में प्रवेश करता है। हरिभद्रसूरि के पहले ऐसा स्पष्ट विधान शायद ही किसी जैनाचार्य ने किया होगा। ___ इसके साथ ही मार्गाभिमुख और मार्गपतित जीव भी योग की पूर्वभूमिका प्राप्त करने की योग्यता वाले होते है। ___मार्गाभिमुख' और 'मार्गपतित' शब्द में जो मार्ग शब्द आया है उसकी परिभाषा ललित-विस्तरा' ग्रन्थ में इस प्रकार है - मार्ग यानी चित्त की सरलता (जिस प्रकार सर्प दर में प्रवेश करता है तब वह सीधा सरल जाता है) उसी प्रकार मार्ग यानि विशिष्ट क्षयोपशम, विशिष्ट गुणस्थानक की प्राप्ति रूप क्षयोपशम, इस मार्ग में प्रवेश करने के लिए योग्य भाव को प्राप्त करनेवाला मनुष्य मार्गाभिमुख कहलाता और मार्ग में प्रवेश किये हुए को मार्गपतित कहते है। ये आत्मा भगवद् आज्ञा को समझने के लिए योग्य होते है, ऐसे जीवों को भी अपुनर्बन्धक जीवों में समाविष्ट किये है। पंचसूत्र की वृत्ति में उपरोक्त विवरण को स्पष्ट रूप से कहा है - 'इयं च भगवती सदाज्ञा सर्वैर्वा पुनर्बधकादि गम्या। अपुनर्बंधकादयो ये सत्त्वा उत्कृष्टां कर्मस्थितिं तथाऽपुनर्बंधकत्वेन क्षपयन्ति ते खल्वपुनर्बंधकाः॥ आदिशब्दान्मार्गपतितमार्गाभि-मुखादयः। परिगृह्यन्ते, दृढप्रतिज्ञालोचनादि गम्यलिंगाः / 23 योगमार्ग के ज्ञाता भगवत् गोपेन्द्र आदि भी योग की योग्यता वाले अपुनर्बंधक आदि जीवों को ही मानते है। उनका कथन है कि जब तक पुरुष का प्रकृति से अधिकार दूर नहीं होता है तब तक पुरुष का यथार्थ योग मार्ग में प्रवेश करने की इच्छा नहीं होती है।२४ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIINIK षष्ठम् अध्याय | 397
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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