________________ लेकिन प्रश्न होता है कि इस योग मार्ग के अधिकारी कौन ? क्योंकि योग्य जीव ही योग का अधिकारी बन सकता है, योग्यता के बिना कार्य करना संभव नहीं है, तथा योग्यता के साथ ही योग्य सामग्री की अनुकूलता भी आवश्यक है। जैसे हम व्यवहार में देखते हैं कि मूंग में पकने की योग्यता होगी तो ही अनुकूल अग्नि, पानी आदि सामग्री मिलने पर पकते हैं। करडु मूंग में पकने की योग्यता नहीं होने के कारण अनुकूल सामग्री मिलने पर भी नहीं पकते हैं। अर्थात् योग्यता एवं अनुकूल सामग्री दोनों का मिलन होना आवश्यक है। उसी प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि योगमार्ग के ज्ञाता थे। अतः उन्होंने योगमार्ग में उन्हीं जीवों को ग्रहण किये हैं जो योग्य हो, अतः / योगशतक में उन्होंने यथार्थ जैन जीवन के चार क्रम-विकास विभाग बताये हैं, जिस प्रकार वैदिक परंपरा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और सन्यास - ये चार आश्रम हैं। जैनत्व जाति से, अनुवंश से अथवा किसी प्रवृत्ति-विशेष से नहीं माना गया है, परन्तु वह तो आध्यात्मिक भूमिका पर निर्भर है। जब किसी व्यक्ति की दृष्टि मोक्षाभिमुख होती है तब वह जैनत्व की प्रथम भूमिका है। इसका पारिभाषिक नाम अपुनर्बन्धक' है। मोक्ष के प्रति सहज श्रद्धा रुचि का प्रगट होने एवं यथाशक्ति तत्त्वों की जानकारी होना यह सम्यग्दृष्टि नाम की दूसरी भूमिका है। जब वह श्रद्धा रुचि एवं समझ आंशिक रूप से जीवन में उतरती है तब देशविरति नामकी तीसरी भूमिका प्रगट होती है। इससे आगे सम्पूर्ण रूप से चारित्र एवं त्याग की कला उत्तरोत्तर विकसित होने लगती है तब सर्व-विरति नाम की चौथी भूमिका अर्थात् अन्तिम भूमिका आती है। इन भूमिकावाले ही आत्मा उत्तरोत्तर योग को प्राप्त करते है। प्रथम अधिकारी अपुनर्बन्धक - आचार्य हरिभद्रसूरि सर्व प्रथम जिसने सच्ची भूमिका का स्पर्श नहीं किया और केवल उस ओर अभिमुख बने हुए आत्मा को योग का अधिकारी बताते हुए कहते है कि वह जीव जो अनादि काल से तीव्र राग-द्वेष-मोह आदि के परिणाम होने से कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बांधता था। लेकिन अब मोह का अंश अल्प क्षीण हो जाने के कारण तथा कर्म प्रकृतियों का आधिक्य कम होने के कारण, चरमावर्तकाल में भी कर्म की उत्कृष्ट स्थिति नहीं बांधने के कारण अपुनर्बन्धक कहलाता है।१९ ‘योगशतक' में अपुनर्बन्धक' के लक्षण बताते हुए कहा कि - (1) यह जीव तीव्र भाव से हिंसादि पापों को नहीं करता है। (2) संसार की समस्त वस्तुएँ स्वजन-परिजन धन-माल मिलकत आदि को न तो बहुमान देता है और न उन वस्तुओं की इच्छा करता है। (3) सभी स्थानों में उचित आचरण करता है, धार्मिक कार्यों में अपनी शक्ति को छुपाता नहीं है और व्यवहारिक में धर्म या धर्मी की निन्दा हो वैसा आचरण नहीं करता है।२० ___ योगबिन्दु में इसी लक्षण को आचार्य हरिभद्रसूरि ने दूसरे शब्दों में प्रस्तुत किया है - जैसे कि जो जीवात्मा भवाभिनंदी दोषों से (क्षुद्रस्वभाव, लोभी, दीन, मत्सरी, भयवाला, कपटी, अज्ञानी) विरोधी गुणवाला (उदारता, निर्लोभता, अदीनता, अमत्सर) तथा अभ्यास के कारण योग के गुणों में क्रमिक विकास करनेवाला हो प्रायः करके वह अपुनर्बन्धक होता है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII षष्ठम् अध्याय | 3961