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________________ विरोध अन्तराय आदि के प्रतिपक्षी है ज्ञानादि की भक्ति उपासना दान इत्यादि / 278 अथवा 'श्रावक प्रज्ञप्ति' में आचार्य हरिभद्रसूरि ने उपरोक्त उपायों के अतिरिक्त भी प्रतिपक्ष उपायों का उल्लेख संसार परिभ्रमण को समाप्त करने के लिए किया है / अधिकार प्राप्त उन सम्यक्त्वादि गुणों के विषय में सदा स्मरण रखने उनके प्रति आदर का भाव रखने, उनके प्रतिपक्ष मिथ्यात्वादि की ओर से उद्विग्न रहने और उनके परिणाम दुःखोत्पादकता का विचार करने से प्रमाद दूर करना चाहिए। तथा कल्याणकारी जिनेन्द्र व सद्गुरु आदि के गुणों में अनुराग उत्तम साधुजनों की उपासना और उत्तरगुणों की श्रद्धा से भी प्रमाद दूर करना चाहिए / अर्थात् ये भी मिथ्यात्वादि के प्रतिपक्ष उपाय है।२७९ यदि इन प्रतिपक्षी उपायों का पुनः पुनः आसेवन किया जाय तो सहज है कि मिथ्यात्वादि से उपार्जित कर्मबन्ध दूर हो जायेंगे। यह नियम है कि जो जिसके कारण का विरोध है उस विरोधी के सेवन से वह क्षीण हो जाता है। उदाहरणार्थ रोमाञ्च खड़े करने में कारणभूत भयंकर शीतकाल की ठंडी है और उसके विरुद्ध है अग्नि, तो अग्नि के आसेवन से रोमाञ्चादि विकार नष्ट हो जाता है। ठीक उसी प्रकार कर्मावरण में कारणभूत मिथ्यादर्शनादि के विरोधी है सम्यग्दर्शनादि गुणसमूह, तो उन सम्यग्दर्शनादि के आसेवन से कर्मावरण नष्ट होना युक्तियुक्त है। जिस प्रकार किसी प्रकाशादि वस्तु के विरुद्ध अंधकारादि पदार्थ उपलब्ध होता है तो वहाँ उस प्रकाशादि वस्तु का अभाव सिद्ध होता है। इस प्रकार उसके कारण के विरुद्ध पदार्थ उपलब्ध होने से भी उसका अभाव सिद्ध होता है। तो यहाँ कर्मकारण से विरुद्ध सम्यग्दर्शनादि की उपलब्धि से कर्मक्षय हो जाए इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है।८ (13) कर्म का सर्वथा नाश कैसे ? - कर्मों का आत्मा के लोहपिंडवत् एकमेव सम्बन्ध होने से उनका सर्वथा नाश अशक्य लगता है, हाँ ! अंशतः उनका नाश हो सकता है। लेकिन यह विचारधारा अज्ञानता की ही सूचक है। आचार्य हरिभद्रसूरि कहते है कि प्रतिपक्षभूत सम्यग्दर्शनादि के सेवन से कर्मावरणों का अंशतः क्षय होता है, यह ज्ञानादि में दृष्टिगोचर होता है। ज्ञान की साधना के लिए पढ़ाई का परिश्रम करते है तो क्रमशः ज्ञानवृद्धि का अनुभव होता है। जैसे एक व्यक्ति प्रथम दो श्लोक करता है / वह ही भविष्य में दस श्लोक भी करता है। क्योंकि अध्ययन करते-करते उत्तरोत्तर ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता जाता है और ज्ञान में वृद्धि को प्राप्त करता जाता है। प्रथम आवरण अधिक थे तो ज्ञान प्रगट नहीं था अब कुछ ज्ञान प्रगट हुआ है तब समझना चाहिए कि आवरणों का कुछ ह्रास हुआ है। तो इससे सिद्ध होता है कि सर्वोच्च प्रतिपक्ष सेवन से कर्मावरण बिल्कुल नष्ट होकर सर्वज्ञता भी उत्पन्न हो सकती है। जैसे कि अल्प चिकित्सा से रोग का कुछ क्षय और उत्कृष्ट चिकित्सा से सर्वथा रोगनाश एवं अल्प पवन से बादल का कुछ बिखरना और अतिशय पवन से बादल का सर्वथा अभाव होता है। उसी प्रकार जीव से एकरस हुए भी कर्म-आवरण चिकित्सा से रोग की तरह प्रतिपक्ष सम्यग्दर्शन के सेवन से क्षीण हो ही जाए इसमें कोई शंका का स्थान नहीं है। जो ऐसा नहीं होता तो आज तक सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके अनंत आत्मा मोक्ष में गये है। वह बात घटेगी नहीं।२८१ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII TA पंचम अध्याय | 371]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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