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________________ है। पुण्य रूप विपाक शक्ति के गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृत ये चार भेद है तथा नीम, कांजीर, विष और , हलाहल ये चार भेद पाप रूप विपाक शक्ति के होते है।२७५ सभी प्रकार के कर्मों के शुभ या अशुभ रूप विपाक फल का भोग जीव करता है। जैसे कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति में कहा - ज्ञानावरणादि कर्मों का जब तीव्र विपाक से युक्त उदय होता है तब वे सम्यक्त्व रूप पुद्गल मिथ्यात्व के प्रदेशरूप होने से अपने स्वभाव से युक्त हो जाते है तथा नरकादि गति उदय होने पर जीव तत्रस्थ भयंकर वेदना भोगता है / 276 आयु कर्म का उदय होने पर जीव पूर्वभव का त्याग कर नवीन भव धारण करता है। इसी प्रकार अन्य कर्मों के विपाक के लिए भी जानना / लेकिन प्रत्येक कर्म के विपाक फल में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भी सहकारी कारण है। जैसे कि आनुपूर्वी नामकर्म का उदय मरण के बाद पूर्व शरीर को छोड़कर परभव का शरीर ग्रहण करने के लिए जाने पर आकाश प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार गमन करते समय होता है। तब वह जीव के स्वभाव के स्वरूप को स्थिर करता है। कुछ कर्मों का विपाक शारीरिक पुद्गलों आदि के माध्यम से भी प्राप्त होता है। फिर भी इन सब का सम्बन्ध जीव से है। लेकिन विपाक माध्यमों व. निमित्तों की प्रमुखता का बोध कराने के लिए उन्हें चार विभागों में विभाजित कर लिया गया है। जीव विपाकी, पुद्गल विपाकी, क्षेत्र विपाकी और भव विपाकी। जीव विपाकी - जो प्रकृति जीव में ही अपना फल देती है। अर्थात् जिसका फल साक्षात् अनुजीवी गुणों के घातरूप प्राप्त होता है उसे जीव विपाकी कर्म कहते है। पुद्गल विपाकी - जो प्रकृति शरीर रूप में परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं के माध्यम द्वारा अपना फल देती है, वह पुद्गल विपाकी है। क्षेत्र विपाकी - विग्रह गति में जो कर्म उदय में आते है, उन्हें क्षेत्र विपाकी कहते है। भव विपाकी - जो कर्म नर-नरकादि भवों में अपना फल देते है उन्हें भवविपाकी कहते है।२७७ इन विभागों में दर्शनान्तर मान्य सभी विपाक भेदों का समावेश हो जाता है। .. (12) कर्म बन्ध हेतुओं के प्रतिपक्ष उपाय - इन मिथ्यात्वादि सामान्य हेतुओ के प्रतिपक्षी उपाय सम्यग्दर्शनादि है। मिथ्यात्व अर्थात् सर्वज्ञ भगवान के कथित तत्त्वों पर अश्रद्धा जिसका प्रतिपक्ष सम्यग्दर्शन है अर्थात् नवतत्त्वों पर अटूट अचल श्रद्धा, तत्त्वों पर रुचि होना। अविरति अर्थात् छःकाय जीवों की हिंसा, आरंभ, समारंभ का विरोध है। चारित्र (विरति) अर्थात् प्रतिज्ञापूर्वक हिंसादि का त्याग। कषाय का प्रतिपक्षी है सम्यग्ज्ञान तपयुक्त उपशम भाव। योग में आरम्भविषय-परिग्रहादि अप्रशस्त योगों के प्रतिपक्ष है ज्ञानाचारादि प्रशस्त योग और प्रशस्त योगों का प्रतिपक्ष है शैलेशीकरण एवं अयोग अवस्था। प्रमाद का प्रतिपक्षी है अप्रमाद। तात्पर्य - सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं अप्रमाद तथा अयोग ये सब उपाय मिथ्यात्वादि सामान्य कर्मबन्ध हेतुओं के प्रतिपक्षी है और कर्मबन्धन के विशेष हेतुभूत ज्ञानादि . आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII IA पंचम अध्याय | 3700
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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