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________________ (14) गुणस्थान में कर्म का विचार - गुणस्थान में कर्म का विचार करने के पहले संक्षेप में गुणस्थान लक्षण एवं नाम का दिग्दर्शन अत्यावश्यक है। अतः पहले उसका स्वरूप प्रदर्शन करते है। गुणस्थान - गुण एवं स्थान दो शब्दों से निष्पन्न पारिभाषिक शब्द है। गुणस्थानों का क्रम ऐसा है जिससे उन वर्गों में सभी संसारी जीवों की आध्यात्मिक स्थितियों का समावेश होने के साथ-साथ बंधादि संबंधी योग्यता दिखलाना सहज हो जाता है और एक जीव की योग्यता जो प्रति समय बदलती रहती है उसका भी दिग्दर्शन किसी न किसी विभाग द्वारा किया जा सकता है तथा इससे यह बताना और समझना सरल हो जाता है कि अमुक प्रकार की आंतरिक शुद्धि या अशुद्धि वाला जीव इतनी और अमुक अमुक कर्म प्रकृतियों के बंध, उदय, उदीरणा एवं सत्ता का अधिकारी है। तथा आध्यात्मिक विकास की क्रमिकता की दृष्टि से देखा जाय तो अन्य विषयों की अपेक्षा गुणस्थानक का महत्त्व अधिक है। गुणस्थान शब्द का प्रयोग आगमोत्तर कालीन टीकाकारों एवं आचार्यों ने कर्मग्रन्थों एवं अन्य धार्मिक ग्रन्थों में किया है। किन्तु आगमों में गुणस्थान के बदले जीवस्थान शब्द का प्रयोग देखने में आता है और आगमोत्तर कालीन ग्रन्थों में जीवस्थान शब्द के लिए भूतग्राम शब्द प्रयुक्त किया गया है। समवायांग में जीवस्थानों की रचना का आधार कर्मविशुद्धि कहा है और उसकी टीका में अभयदेवसूरिजी म. ने भी गुणस्थानों को ज्ञानावरणादि कर्मों की विशुद्धिजन्य बताया है। उनके अभिप्रायानुसार आगम में जिन चौदह जीवस्थानों के नामों का उल्लेख है, वे ही नाम गुणस्थानों के है। ये चौदह जीवस्थान कर्मों के उदय उपशम क्षय, क्षयोपशम आदि भावाभावजनित अवस्थाओं से बनते है तथा परिणाम और परिणामी में अभेदोपचार से जीवस्थान को गुणस्थान कहते है। आगमोत्तर कालीन साहित्य में गुणस्थान शब्द के अधिक प्रचलित एवं प्रसिद्ध होने का कारण यह है कि औदयिक औपशमिक क्षायोपशमिक और क्षायिक गुण तो जीव में कर्म की अवस्थाओं से संबंधित है किन्तु पारिणामिक भाव एक ऐसा गुण है जिसमें किसी अन्य संयोग की अपेक्षा नहीं होती वह स्वाभाविक है। अतः इस गुण की प्रमुखता के कारण अभेदोपचार से जीव को भी गुण कहा और गुण की मुख्यता से पश्चात्वर्ती साहित्य में संभवित गुणस्थान शब्द मुख्य एवं जीवस्थान शब्द गौण हो गया। कारण कुछ भी रहा हो लेकिन आगमों और पश्चाद्वर्ती साहित्य में शाब्दिक मतभेद होने पर भी गुणस्थान एवं जीव स्थान का आशय एक ही है इसमें किसी प्रकार मत भिन्नता नहीं है। गुणस्थान का पारमार्थिक अर्थ है - ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप जीव स्वभाव विशेष आत्मा के विकास की क्रमिक अवस्था आत्मिक शक्तियों के आविर्भाव की उनके शुद्ध कार्यरूप में परिणत होते रहने की तरतम भावापन्न अवस्था में क्रमशः शुद्ध और विकास करती हुई आत्म परिणति का स्थान अथवा कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था में होनेवाले परिणामों का स्थान। उन परिणामों से युक्त जीव उस गुणस्थानक वाले कहे जाते है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI पंचम अध्याय | 372)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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