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________________ वैक्रिय शरीर धारण करते है उस समय तथा चन्द्रमा नक्षत्र और तारा मण्डल के पृथ्वीकाय के जीवों के शरीर उद्योत नामकर्म से युक्त होने के कारण शीतल प्रकाश फैलाते है। इसी प्रकार जुगुनू रत्न एवं प्रकाश फैलाने वाली दूसरी औषधियों में भी इसी उद्योत नामकर्म का उदय समझना चाहिए।२०३ (5) अगुरुलघु - जिसके उदय से प्राणी का शरीर न भारी होती है और न हलका होता है उसे अगुरुलघु नामकर्म कहते है।२०४ (6) तीर्थंकर नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव को तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है उसे तीर्थंकर नामकर्म कहते है। इसका उदय केवलज्ञान की दिव्य ज्योति प्राप्त होने के बाद होता है। तत्पश्चात् चोत्रीश अतिशय युक्त वाणी में उत्सर्ग मार्ग से धर्म की प्ररूपणा करते है।२०५ (7) निर्माण नामकर्म - जिस कर्म के उदय से अंग-उपांग अपनी-अपनी जगह व्यवस्थित होते है उसे निर्माण नामकर्म कहते है।०६ ___ यह कर्म चित्रकार या शिल्पी के समान है।२०७ जैसे चित्रकार या शिल्पी मूर्ति या चित्र में यथास्थान हाथ, पैर, मुँह, चक्षु आदि अवयवों को चित्रित करता है। वैसे ही निर्माण नामकर्म भी शरीर के अवयवों का नियमन करता है। (8) उपघात नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव अपने शरीर के अवयवों से क्लेश प्राप्त करता है वह उपघात नामकर्म कहलाता है।२०. प्रतिजिह्वा (पडजीभ) चोर दंत (ओठ के बहार निकले हुए दंत) लम्बिका (छट्ठी अंगुली) आदि शरीरावयवों की उपघातक अवयवों में गणणा होती है। - त्रस दशक-द्वीन्द्रिय ये पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीव त्रस कहलाते है। उनमें घटने वाली प्रकृतियाँ दस होने से व त्रस दश कहलाती है। तस बायर पज्जतं पत्तेय थिरं सुभं सुभगं च। सुसराऽऽइज्ज जसं तसदसगं इमं होइ॥२०९ 1. त्रस नाम, 2. बादर नाम, 3. पर्याप्त नाम, 4. प्रत्येकनाम, 5. स्थिर नाम, 6. शुभ नाम, 7. सुभ / नाम, 8. सुस्वर नाम, 9. आदेय नाम, 10. यश-कीर्ति नाम। (1) त्रस नाम - जिस कर्म के उदय से जीव को त्रसकाय की प्राप्ति होती है वह त्रसनामकर्म कहलात. त्रस जीवों के बेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ये चार भेद हैं।२११ त्रस जीव गर्मी, सर्दी, वर्षा आदि से अपना बचाव करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते है। यद्यपि तेउकाय और वाउकाय जीवों के स्थावर नामकर्म का उदय है। लेकिन उनमें त्रस के समान गति दिखने के कारण गतित्रस कहा जाता है। अतः त्रस के दो भेद गतित्रस और लब्धित्रस / | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIINA पंचम अध्याय | 359 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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