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________________ यह दो प्रकार की है। 1. शुभ विहायोगति, 2. अशुभविहायोगति। जिस कर्म के उदय से जीव की चाल हंस, हाथी के सदृश शुभ हो वह शुभ विहायोगति नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव की चाल ऊंट, गधे आदि की तरह अशुभ हो उसे अशुभ नामकर्म विहायोगति कहते इस प्रकार विहायोगति नामकर्म के भेदों के साथ नामकर्म की गति, जाति आदि चौदह पिंड प्रकृति की उत्तरप्रकृतियाँ का निरूपण पूर्ण हो जाता है। संक्षेप में वे इस प्रकार है। गइआईण उ कमसो चउपणपण तिपण पंच छच्छक्कं / पण दुग पणट्ठ चउदुग इय उत्तरभेय पणसट्ठी॥२०० गति के चार, जाति के पाँच, शरीर के पाँच, अंगोपांग के तीन, बन्धन के पाँच, संघात के पाँच, संघयण के छः, संहनन के छः, वर्ण के पाँच, गंध के दो, रस के पाँच, स्पर्श के आठ, आनुपूर्वी के चार और विहायोगति के दो भेद है। कुल भेदों की संख्या पैंसठ है तथा पूर्व में बताये गये अपेक्षा भेद से बंधन के पाँच स्थान पर पन्द्रह बन्धन नामकर्म के भेदों को लिया जाय तब पैंसठ के स्थान पर (65+10=75) पचहत्तर पिंड प्रकृति के उत्तर भेद होंगे। अब अपिंड प्रकृतियाँ जो 28 है प्रत्येक त्रस दशक और स्थावर दशक इन में से सर्व प्रथम प्रत्येक प्रकृति के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है - नामकर्म की प्रत्येक प्रकृतियाँ आठ है - परघा-उसास-आयवुज्जोअं। अगुरुलहु तित्थ निमिणो वघायमिअ अट्ठ पत्तेआ॥२०१ 1. पराघात नाम, 2. उच्छवास, 3. आतप नाम, 4. उद्योत नाम, 5. अगुरुलघु, 6. तीर्थंकर नाम, 7. निर्माण नाम, 8. उपघात नाम / (1) पराघात नामकर्म - जिसके उदय से प्राणी दूसरों के द्वारा पराजित नहीं होता है। (2) उच्छ्वास नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव श्वासोच्छास लब्धियुक्त होता है, वह उच्छ्वास नामकर्म कहलाता है। (3) आतप नामकर्म - जिस कर्म के उदय से प्राणी का स्वयं का शरीर उष्ण न होते हुए भी उष्ण प्रकाश करता है, वह आतप नामकर्म कहलाता है। आतप नामकर्म का उदय ‘सूर्यबिम्ब' के बाहर स्थित पृथ्वीकाय जीवों को होता है।२०२ अन्य जीवों का नहीं। (4) उद्योत जिसके उदय से जीव का शरीर शीतल (अनुष्ण) प्रकाश फैलाता है उसे उद्योत नामकर्म कहते है। इसका उदय लब्धिधारी मुनि जब वैक्रिय शरीर धारण करते है तथा देव जब मूल शरीर की अपेक्षा | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIA पंचम अध्याय | 358
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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