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________________ रसनाम, 5. मधु रसनाम।१९४ जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर रस सोंठ या काली मिर्च जैसा चटपटा हो वह तिक्त रसनामकर्म है। " इसी प्रकार अन्य रसों का भी स्वरूप जानना चाहिए। ___ स्पर्श नामकर्म - जिसके उदय से शरीर में स्पर्श का प्रादुर्भाव होता है उसे स्पर्श नामकर्म कहते है। वह 1. कर्कश, 2. मृदु, 3. गुरु, 4. लघु, 5. स्निग्ध, 6. रुक्ष, 7. शीत, 8. उष्ण नामकर्म के भेद से आठ प्रकार का है।१९५ ‘सर्वार्थसिद्धि' 196 और ‘कर्मप्रकृति'१९७ में भी ये भेद है। इनमें जिसके उदय से शरीर में कर्कश स्पर्श का प्रादुर्भाव होता है, वह कर्कश स्पर्श नामकर्म कहलाता है। इसी प्रकार शेष का स्वरूप भी है। __ आनुपूर्वी नाम कर्म - जिसके उदय से प्राणी अपान्तरालगति (विग्रहगति) में श्रेणि के अनुसार नियत देश को जाता है उसका नाम आनुपूर्वी नामकर्म है। अन्य आचार्यों के अनुसार आनुपूर्वी या आनुपूर्व्य नामकर्म वह कहलाता है जिसके उदय से विग्रहगति में वर्तमान जीव के पूर्व शरीर के आकार का विनाश नहीं होता है। अन्य किन्हीं आचार्यों के मतानुसार जिसके उदय से निर्माण नामकर्म द्वारा निर्मित शरीर के अंग-उपांगों के विनिवेश क्रम का नियमन होता है उसे आनुपूर्व्य नामकर्म कहते है। इस प्रकार आनुपूर्वी के लक्षण के विषय में अनेक मत उपलब्ध होते है। वह आनूपूर्वी नामकर्म चार प्रकार है - 1. नरकानुपूर्वी, 2. तिर्यंचानुपूर्वी, 3. मनुष्यानुपूर्वी, ४.देवानुपूर्वी।। जिसके उदय से नरकभव के सन्मुख हुए जीव के विग्रहगति में पूर्व शरीर का आकार बना रहता है वह नष्ट नहीं होता है। उसे नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी कहते है। गर्ग महर्षि विरचित कर्मविपाक के अनुसार नरकायु का उदय होने पर मोड लेकर गमन करते हुए जीव के उस विग्रहवाली गति में नरकानुपूर्वी का उदय होता है।१९८ ऋजुगति में उसका उदय नहीं होता है, क्योंकि मुक्त जीव मोक्ष के नियत स्थान पर ऋजु गति से जाते है, परन्तु संसारी जीवों के उत्पत्ति स्थान कभी वर्तमान स्थिति स्थान से नीचे उपर, सीधा, तिरछा आदि हो सकता है। जो कभी उनको जहाँ उत्पन्न होना है वह नया स्थान पूर्व स्थान की बिल्कुल सरल रेखा में होता और कभी वक्र रेखा में, क्योंकि पूनर्जन्म के नवीन स्थान का आधार पूर्वकृत कर्म है और कर्म विविध प्रकार का है, जिससे संसारी जीव की गति ऋजु और वक्र दो प्रकार की हो सकती है। .. संसारी जीव की वक्र गति अधिकतम तीन घुमावों वाली होती है। तीन घुमावों में वह अवश्य अपने उत्पत्ति स्थान में पहँच जाता है। जिस वक्रगति में एक घुमाव हो उसका काल दो समय, दो घुमाव हो उसका काल तीन समय तीन घुमाव हो तो उसका कालमान चार समय लगता है। इसी प्रकार शेष तीन आनुपूर्वी का स्वरूप समझना चाहिए। विहायोगति नामकर्म - जिसके उदय से जीव का गमन होता है वह विहायोगति नामकर्म कहलाता है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII INA पंचम अध्याय | 357 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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