________________ (2) बादर नामकर्म - जिसके उदय से जीव का शरीर बादर अर्थात् स्थूल होता है वह बादर नामकर्म कहलाता है। बादरनाम यदुदयाद् बादरो भवति स्थूर' इत्यर्थः / 12 यदुदयाद् जीवा बादरा भवन्ति तद् बादरनामइत्यर्थः / 253 बादर का जिसे आँख से देखा जा सके यह अर्थ नहीं है। क्योंकि एक-एक बादर पृथ्वीकाय आदि का शरीर भी आँखों से नहीं देखा जा सकता है। किन्तु बादर पृथ्वीकाय आदि जीवों में एक प्रकार का बादर परिणाम उत्पन्न करता है जिससे उन जीवों के शरीर समुदाय में एक प्रकार की अभिव्यक्ति की क्षमता प्रकट हो जाती है और वे शरीर दृष्टिगोचर होते है। (3) पर्याप्त नामकर्म - जिस नामकर्म से जीव अपनी अपनी पर्याप्तियों से युक्त होता है उसे पर्याप्त नामकर्म कहते है।२१४ पर्याप्त के छः भेद है - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्रास, भाषा और मन। (4) प्रत्येक नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से एक शरीर का स्वामी एक जीव हो उसे प्रत्येक नामकर्म कहते है। (5) स्थिर नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव के दांत हड्डियाँ ग्रीवा आदि के अवयव स्थिर, निश्चल हो वह स्थिर नामकर्म कहलाता है। (6) शुभ नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव के नाभि से उपर के अवयव शुभ हो वह शुभ नामकर्म कहलाता है। (7) सुभग नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार उपकार किये बिना भी या किसी तरह सम्बन्ध न होने पर भी सबको प्रिय लगता है उसे सुभग नामकर्म कहते है।२१५ . (8) आदेय नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव का वचन सर्वमान्य हो वह आदेय नामकर्म कहलाता (9) यशः कीर्ति, पद - यश और कीर्ति इन दो शब्दों से निष्पन्न सामासिक पद है। किसी एक दिशा में जो ख्याति प्रशंसा होती है वह कीर्ति और सब दिशाओं में जो प्रशंसा-ख्याति हो वह यश।२१६ एकदिग्गामिनि कीर्तिः सर्वदिग्गामुकं यशः / दान तप आदि से जो नाम होता है उसे कीर्ति कहते है और पराक्रम वीरता शत्रु पर विजय उससे जो नाम होता है उसे यश कहते है। ‘दान पुण्यकृता कीर्ति पराक्रम कृतं यशः।' स्थावर दशक - जिस कर्म के उदय से जीव स्थिर रहे, गर्मी-सर्दी आदि से बचने का उपाय न कर सके वह स्थावर नामकर्म है। पृथ्वी, अप्, तेउ, वायु और वनस्पति कायिक जीव स्थावर जीव है। सूक्ष्मनाम - जिस कर्म के उदय से जीव को सूक्ष्म शरीर प्राप्त हो उसे सूक्ष्म नाम कर्म कहते है। सूक्ष्म | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VITA / पंचम अध्याय | 360