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________________ तीसरी हड्डी से वेष्टित दो हड्डियों के उपर उन तीनों हड्डियों की भेदक कीलिकासंज्ञक वज्र नामक हड्डी हुआ करती है उसे वज्रऋषभनाराचसंहनन नामकर्म कहते है। - 2. ऋषभनाराचसंहनन - जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना विशेष में दोनों तरफ हड्डियों का मर्कटबन्ध हो तीसरी हड्डी का वेष्टन भी हो लेकिन तीनों हड्डियों को भेदनेवाली हड्डी की कीली न हो उसे ऋषभ नाराच संघयण कहते है। 3. नाराचसंहनन - जिस कर्म के उदय से हड्डियों के बन्धन में केवल उभयतः मर्कटबन्ध रूप नाराच ही रहता है उसे नाराचसंहनन कहते है। ___4. अर्धनाराच - जिस कर्म का उदय होने पर हड्डियों के परस्पर बन्धन में आधा नाराच रहता है उसे अर्धनाराच संहनन नामकर्म कहते है। 5. कीलिका संहनन - जिस कर्म के उदय में हड्डियाँ परस्पर कीलिका मात्र से सम्बद्ध रहा करती है उसका नाम कीलिका संहनन नामकर्म है। 6. छेवटु संहनन - जिस कर्म का उदय होने पर हड्डियाँ दोनों और चमडे स्नायु और मांस से सम्बद्ध रहा करती है / वह छेवट्ठ संहनन है।१८१ द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक चार गति के जीवों में छट्ठा संघयण तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमि में उत्पन्न जीवों में प्रथम संघयण, अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में छहो संघयण, पांचवे आरे में अन्तिम तीन संघयण और छट्टे आरे में अन्तिम एक संघयण वाले जीव होते है। सम्पूर्ण विदेह क्षेत्रों तथा विद्याधर म्लेच्छ मनुष्यों और तिर्यंच व नागेन्द्र पर्वत से परवर्ती तिर्यंचों में छहों संघयण है। 182 8. संस्थान नामकर्म - जिस कर्म के उदय से शरीर की विविध प्रकार की शुभ-अशुभ आकृतियाँ है उसे संस्थान नामकर्म कहते है। श्री भगवती सूत्र,१८३ प्रज्ञापना८४ तथा सर्वार्थ सिद्धि,१८५ में यह दो प्रकार का बताया है। 1. इत्थंलक्षण, 2. अनित्थंलक्षण / इत्थंलक्षण - जिसका निश्चित आकार बताया जाय कि यह वृत्ति, त्रिकोण, चतुष्कोण आकार वाला है वह इत्थंलक्षण कहा है। अनित्थंलक्षण - जिसका कोई निश्चित आकार न बता सके जैसे कि मेघ आदि का। संस्थान नामकर्म छः प्रकार का है। जिसका वर्णन इस प्रकार है (1) समचतुरस्र संस्थान नामकर्म - जिसके उदय से प्राणियों को समचतुरस्त्र संस्थान की प्राप्ति हो वह समचतुरस्र संस्थान नाम कर्म है। सम का अर्थ समान, चतुः का अर्थं चार और अस्र का अर्थ कोण है। अर्थात् पद्मासन लगाकर बैठने से जिस शरीर के चारों कोण समान हो यानि आसन और कपाल का अन्तर दोनों घुटनों का अन्तर, दाहिने कंधे और बांये जानु का अन्तर और बांये कन्धे व दाहिने जानु का अन्तर समान हो अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिसके शरीर के सभी अवयव शुभ हो वह समचतुरस्र संस्थान कहलाता है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII | पंचम अध्याय | 355
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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