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________________ यद्यपि बन्धन नाम मूल रूप में उपरोक्त पाँच भेद है। लेकिन अपेक्षा दृष्टि से पन्द्रह भेद भी होते है। जैसे कि - 1. औदारिक-औदारिक, 2. वैक्रिय-वैक्रिय, 3. आहारक-आहारक, 4. तैजस-तैजस, 5. कार्मण-कार्मण, 6. औदारिक तैजस, 7. वैक्रिय तैजस, 8. आहारक तैजस, 9. औदारिक कार्मण, 10. वैक्रिय-कार्मण, 11. आहारक-कार्मण, 12. तैजस-कार्मण, 13. औदारिक-तैजस-कार्मण, 14. वैक्रिय तैजस कार्मण, 15. आहारक तैजस-कार्मण / 174 (6) संघात नामकर्म - जिसके उदय से औदारिक आदि शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण होने पर उन शरीरों की रचना होती है उसे संघातन नामकर्म कहते है।१७५ अथवा पूर्वगृहीत और गृह्यमाण शरीर पुद्गलों का बन्धन तभी संभव है जब वे दोनों एक दूसरे के निकट होंगे। यह कार्य जिस कर्म के द्वारा किया जाता है, उसका नाम है संघात नामकर्म, अतः बन्धन नामकर्म के अनन्तर संघात नामकर्म का कथन होता है।१७६ जैसे दंताली से इधर-उधर बिखरी घास इक्कट्ठी की जाती है, जिससे बाद में वह गट्टे के रूप में बंध जाती है। वैसे ही संघात नामकर्म शरीर योग्य पुद्गलों को सन्निहित करता है और बन्धन नामकर्म के द्वारा वे सम्बद्ध होते हैं।७७ अर्थात् शरीर योग्य पुद्गलों को समीप में लाने का काम संघात नामकर्म का है और उसके बाद उन्हें उन-उन शरीर से बन्धन नामकर्म सम्बद्ध करता है। संघात नामकर्म मात्र पाँच प्रकार का है। 1. औदारिक संघात नामकर्म, 2. वैक्रिय संघात नामकर्म, 3. आहारक संघात नामकर्म, 4. तेजस संघात नामकर्म, 5. कार्मण संघात नामकर्म। जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर रूप परिणत, गृहीत एवं गृह्यमाण पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो अर्थात् एकत्रित होकर वे एक-दूसरे के पास व्यवस्था पूर्वक जम जाय वह औदारिक संघात नामकर्म है। इसी प्रकार शेष चार का भी स्वरूप समझना। ___ संघात नामकर्म यद्यपि बन्धन नामकर्म का निकटतम सहयोगी है, लेकिन बन्धन नामकर्म की तरह अपेक्षा दृष्टि से उसके पन्द्रह भेद न मानकर गृहीत स्व शरीर पुद्गलों के साथ गृह्यमाण स्व शरीर पुद्गलों के संयोग रूप संघातों की शुभरूपता का प्राधान्य बताने के लिये संघात नामकर्म के मात्र पाँच भेद कहे गये हैं।१७८ (7) संहनन नामकर्म - जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियों की संधियाँ दृढ़ होती है। अथवा जिस कर्म के उदय से हड्डियों का आपस में जुड़ जाना अर्थात् रचना विशेष होती है। अथवा जिसके उदय से हड्डियों का बन्धन विशेष होता है उसे संहनन नामकर्म कहते है।१७९ औदारिक शरीर के सिवाय अन्य वैक्रिय आदि शरीरों में हड्डियाँ नहीं होती है / अतः संहनन नाम कर्म का उदय औदारिक शरीर में ही होता है। अर्थात् मनुष्य और तिर्यंच के औदारिक शरीर होने से उनमें ही संहनन नामकर्म का उदय पाया जाता है।१८० इसके छः भेद है - 1. वज्र ऋषभ नाराच संहनन - वज्र का अर्थ कीलिका, ऋषभ का अर्थ परिवेष्टन पट्ट और नाराच का अर्थ दोनों तरफ मर्कटबन्ध है। तदनुसार जिसका उदय होने पर उभयतः मर्कटबन्ध से बंधी हुई व पट्ट के आकार | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII TA पंचम अध्याय | 3540
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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