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________________ में लाख योजन गमन करने में समर्थ है। (4) तैजस शरीर - जिस नामकर्म के उदय से जीव को तैजस शरीर प्राप्त हो या बने उसे तैजस शरीर नामकर्म कहते है। 165 तैजस पुद्गलों से बना हुआ शरीर तैजस शरीर कहलाता है। 166 प्राणियों के शरीर में स्थित उष्णता से इस शरीर का अस्तित्व सिद्ध होता है। यह शरीर ‘आहार का पाचन' करता है। तपो विशेष से तैजस लब्धि (तेजोलेश्या) का कारण भी यही शरीर है। (5) कार्मणशरीर - जिस नामकर्म से जीव को कार्मण शरीर की प्राप्ति हो वह कार्मण नामकर्म कहलाता है।१६७ ज्ञानावरण आदि कर्मों से बना हुआ शरीर कार्मण शरीर कहलाता है। इसी शरीर के कारण जीव नरकादि रूप संसार. भ्रमण (जन्म-मरण) करता है और अनेक दुःखों को प्राप्त करता है। उत्तर के शरीर पूर्व-पूर्व के शरीर से सूक्ष्मतर है - ‘परं परं सूक्ष्मम्' / 168 (4) अंगोपांग - जिसके उदय से सिर आदि अंगों की और श्रोत्र आदि अंगोपांग की रचना होती है वह अंगोपांग नामकर्म कहलाते है। सिर, वक्ष पेट, पीठ, दो हाथ और उरु (पांव) ये आठ है। अंगुलि आदि को उपांग और शेष को अंगोपांग माना जाता है। सीसमुरोदर पिट्ठी दो बाहू उरुभयाय अटुंगा। अंगुलिमाइ उवंगा अंगोवंगाई सेसाई॥१६९ बाहुरु पिट्ठी सिर, उर, उयरंग, उवंग, अंगुलि पमुहा। सेसा अंगोवंगा। पढमतणुतिगसुवंगाणि१७० यह अंगोपांग औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रिय शरीर अंगोपांग और अहारक शरीर अंगोपांग के भेद से तीन प्रकार का है। जिसके उदय से औदारिक शरीर रूप से परिणित पुद्गलों का अंग उपांग और अंगोपांगों के रूप में विभाजन होता है वह औदारिक शरीरांगोपांग कहलाता है। इसी प्रकार वैक्रियशरीरांगोपांग और आहारकशरीरांगोपांग का भी स्वरूप समझना चाहिए। तैजस और कार्मण इन दो शरीरों के अंगोपांग की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वे जीव प्रदेशों के समान होते है। (5) बंधन - जिसके उदय से समस्त आत्मप्रदेशों के द्वारा पूर्व में ग्रहण किये गये तथा वर्तमान में ग्रहण किये जानेवाले पुद्गलों का परस्पर अथवा अन्य शरीरगत पुद्गलों के साथ लाख के समान सम्बन्ध होता है उसका नाम बन्धन नामकर्म है।१७१ वह औदारिक शरीर बन्धन आदि के भेद से पांच प्रकार का है। जिस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत एवं गृह्यमाण औदारिक पुद्गलों का परस्पर एवं तैजस, कार्मण शरीर के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होता है, वह औदारिक शरीर बन्धन नामकर्म है। उसी प्रकार शेष चार 2. वैक्रिय शरीर बन्धन नाम, 3. आहारक शरीर बन्धन नाम, 4. तैजस शरीर बन्धन नाम, 5. कार्मण शरीर बन्धन नाम का स्वरूप समझना चाहिए।१७२ यदि बन्धन नामकर्म न हो तो शरीरपाक परिणत पुद्गलों में वैसी ही अस्थिरता रहती है जैसी हवा में उडते हुए सत्तू के कणों में होती है।१७३ [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIII पचम अध्याय 353
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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