________________ 4. चतुरिन्द्रिय नामकर्म के उदय से जीव को स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु - ये चार इन्द्रियां मिलती है। जैसे मच्छर, डांस, भँवरा आदि। 5. पंचेन्द्रिय नामकर्म के उदय से जीव को स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत - ये पाँच इन्द्रियाँ प्राप्त होती है। जैसे मनुष्य, गाय, पक्षी।५४ (3) शरीर - जिसके उदय से जीव के औदारिक आदि शरीर का सद्भाव होता है वह पाँच प्रकार का है। औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण। जिस नामकर्म के उदय से जीव औदारिक शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें औदारिक शरीर के रूप में परिणमाता है उसे औदारिक कहते है।५५ अथवा जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर प्राप्त हो अथवा औदारिक शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर जीव औदारिक शरीर रूप परिणत करके जीव प्रदेशों के साथ अन्योन्य अनुगम रूप से सम्बन्धित करता है उसे औदारिक शरीर नामकर्म कहते है।५६ अथवा रुधिर, मांस, हड्डी आदि सात धातुओं से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है।१५७ यह औदारिक शरीर सभी गर्भ जन्मवाले और संमूर्छिम जन्म वाले मनुष्य और तिर्यंचों का होता है।५८ वैक्रिय शरीर - जिस नामकर्म के उदय से जीव को वैक्रिय शरीर की प्राप्ति हो।५९ अथवा वैक्रिय शरीर प्रयोग पुद्गलों को ग्रहण करके जीव वैक्रिय शरीर रूप में परिणत करता और जीव प्रदेशों के साथ अन्योन्य अनुगम से सम्बन्धित करता है उसे वैक्रिय शरीर नामकर्म कहते है।१६० __ जिस शरीर से विशिष्ट और विविध क्रियाएँ होती है, जो विविध गुण और ऋद्धियों से युक्त है। जैसे एक रूप होकर अनेक रूप धारण करना, आकाशगामी होकर पृथ्वी पर चलना, छोटे से बड़ा और बड़ा से छोटा शरीर बनाना, दृश्य अदृश्य रूप बनाना।१६१ वैक्रिय शरीर जन्मसिद्ध और अजन्मसिद्ध (लब्धिजन्य) दो प्रकार का होता है। जन्मसिद्ध वैक्रिय शरीर उपपात वाले देव और नारक को होता है।१६२ कृत्रिम वैक्रिय का कारण लब्धि है, वह लब्धि तप आदि के द्वारा प्राप्त होता है। उसके अधिकारी गर्भज मनुष्य और तिर्यंच है। कृत्रिम वैक्रिय कारणभूत एक दूसरे प्रकार की भी लब्धि मानी गयी है जो तपोजन्य न होकर जन्म से ही मिलती है। ऐसी लब्धि कुछ बादर वायुकाय के तथा तेजस्काय जीवों में मानी गयी हैं।१६३ जिससे वे भी लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर के अधिकारी है। (3) आहारक शरीर - जिस कर्म के उदय से आहारक शरीर प्राप्त हो अथवा आहारक शरीर नामकर्म से प्राप्त होनेवाले शरीर को आहारक नामकर्म कहते है।१६४४ चौदह पूर्व धारी मुनिराज लब्धि विशेष के द्वारा महाविदेह में वर्तमान तीर्थंकरों की ऋद्धि-दर्शन, संशय निवारण आदि कारणों से जो शरीर धारण करते है वह आहारक शरीर कहलाता है। यह लब्धि मनुष्य के सिवाय नहीं होती है। मनुष्य में भी मात्र चौदह पूर्वधारी मुनिराजों को ही प्राप्त होती है। मुनि अपनी विशिष्ट लब्धि द्वारा एक हस्तप्रमाण शरीर बनाते है। यह शरीर अन्य क्षेत्र में स्थित सर्वज्ञ के पास जाकर संदेह निवारण कर पुनः अपने स्थान पर आ जाता है। यह सम्पूर्ण कार्य अन्तमुहूर्त में हो जाता है। यह सात धातुओं से रहित होता है। क्षण मात्र [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIINIK पंचम अध्याय | 352