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________________ (2) निद्रानिद्रा - जिस निद्रा में प्राणि कठिनता निद्रा करता है। (3) प्रचला - जिस निद्रा में प्राणी बैठे-बैठे निद्रा करता है। (4) प्रचलाप्रचला - जिस निद्रा में प्राणी चलते-चलते निद्रा करता है। (5) थीणद्धि - यह निद्रा अति संक्लिष्ट कर्म का उदय होने पर प्राणी को आती है। इस नींद की अवस्था में प्राणी सोते-सोते उठकर दिन में चिन्तित दुष्कर व्यापार को भी प्रायः सिद्ध करता है। इस निद्रा के उदय वाले व्यक्ति को दीक्षा देने का निषेध है। इस प्रकार की इन पाँच निद्राओं के कारणभूत जो कर्म है, उन्हें ... यथाक्रम से उक्त निद्रादि पाँच दर्शनावरण जानना चाहिए। ये सब प्राप्त दर्शन के विनाशक और अप्राप्त दर्शन के . चूंकि रोधक है, इस लिए इन्हें दर्शनावरण के रूप में ग्रहण किया गया है। (6) नयन' शब्द चक्षुवाचक है। चक्षु इन्द्रियजन्य सामान्य उपयोग का जो आवरण किया करता है उसे चक्षुदर्शनावरण कहते है। (7) चक्षु से भिन्न अन्य इन्द्रियों से होनेवाले सामान्य उपयोग के आवरक कर्म को अचक्षुदर्शनावरण. कहा जाता है। (8-9) इसी प्रकार अवधि और केवल रूप सामान्य उपयोग के आवरक कर्म को क्रम से अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण जानना चाहिए।१०६ दर्शनावरण में जो पाँचवा भेद थीणद्धि है उसकी विशेषता बताते हुए प्रथम कर्मग्रन्थकार कहते है कि यदि वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन वाले जीव को ‘स्त्यानर्द्धि' निद्रा का उदय हो तो उसमें वासुदेव के आधे बल के बराबर बल हो जाता है।०७ इस निद्रा वाला जीव नरक में जाता है। ___ स्त्यानर्द्धि का दूसरा नाम 'स्त्यानगृद्धि' भी है। जिस निद्रा के उदय से निद्रित अवस्था में विशेष बल प्रगट हो जाय, अथवा जिसके उदय से जीव सुप्त अवस्था में रौद्र कर्म करता है।०८ अथवा जिस निद्रा में चिन्तित अर्थ और साधन विषयक आकांक्षा का एकीकरण हो जाय उसे 'स्त्यानगृद्धि' कहते है। 3. वेदनीय - जिस कर्म के उदय से व्यक्ति को सुख-दुःख की प्राप्ति हो उसे वेदनीय कर्म कहते है। यद्यपि ज्ञानावरण आदि सभी कर्म अपने विपाक का वेदन कराते है। लेकिन पंकज' जैसे 'कमल' के अर्थ में रुढ है। वैसे ही वेदनीय शब्द को साता-असाता रूप फल विपाक वेदन कराने में रुढ़ समझना चाहिए।१०९ वेदनीय कर्म दो प्रकार का है। (1) शाता वेदनीय (2) अशातावेदनीय।११० (1) शातावेदनीय - जिसका वेदन सुखस्वरूप से होता है या जो सुख का वेदन कराता है उसे शातावेदनीय कहते है।१११ अथवा शाता वेदनीय जन्य सुखादि का वेदन रति मोहनीय कर्म के उदय द्वारा किया जाता है। अर्थात् रति मोहनीय कर्म के उदय से जो जीव को सुखकारक इन्द्रिय विषयों का अनुभव कराता है, उस कर्म को शाता वेदनीय कर्म कहते है।११२ / (2) अशातावेदनीय - जिसका वेदन दुःखस्वरूप से होता है या जो दुःख का वेदन कराता है। जिस | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII TA पंचम अध्याय | 342
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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