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________________ कर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल विषयों की अप्राप्ति और प्रतिकूल इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति में दुःख का अनुभव होता है। उसे अशातावेदनीय कहते है। अशातावेदनीय कर्म के विपाक वेदन के लिए अरति मोहनीय कर्म का उदय जरुरी है। समस्त संसारी जीव वेदनीय कर्म के उदय से दुःख-सुख का अनुभव करते है। वे न तो एकान्त रूप से सुख का ही और न दुःख का ही वेदन करते है। उनका जीवन सुख-दुःख से मिश्रित होता है। फिर भी देवगति और मनुष्य गति प्रायः शाता वेदनीय और तिर्यंच और नरक गति में अशाता वेदनीय का उदय रहता है।१३ यहाँ प्रायः शब्द से यह संकेत किया गया है कि देव और मनुष्यों के शाता वेदनीय के सिवाय अशाता वेदनीय का भी और नरक तथा तिर्यंचों को अशाता के सिवाय शाता का भी उदय सम्भव है। चाहे वह अल्पांश हो, लेकिन संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। (4) मोहनीय कर्म - मोहनीय कर्म के उदय से जीव अपने हिताहित को नहीं समझ पाता है। मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद है / (1) दर्शन मोहनीय (2) चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय के तीन भेद है। (1) सम्यक्त्व मोहनीय (2) मिथ्यात्व मोहनीय (3) मिश्र मोहनीय। दुविहं च मोहणीयं दंसणमोहं चरित्तमोहं च। दसणमोहं तिविहं, सम्मेयर मीसवेयणियं // 114 दर्शन से यहाँ सम्यग् दर्शन अभिप्रेत है। तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यग् दर्शन को जो मोहित करता है वह दर्शनमोहनीय कहलाता है। वह दर्शनमोहनीय तीन प्रकार का है / 115 (1) सम्यक्त्व मोहनीय - जिस कर्म के उदय से तत्त्व रुचि रूप सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता है तथा सूक्ष्म पदार्थों के विचारने में शंकाएँ हुआ करती है। अर्थात् यह कर्म यद्यपि शुद्ध होने के कारण तत्त्व रुचि रूप सम्यक्त्व में व्याघात नहीं पहुंचाता है। तात्त्विक रुचि का निमित्त भी है। किन्तु आत्म स्वभाव रूप औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व होने नहीं देता। उनका प्रतिबन्धक है। जैसे चश्मा आँखों का आच्छादन होने पर भी देखने में रुकावट नहीं डालता है, वैसे ही शुद्ध दलिक रूप होने से सम्यक्त्व मोहनीय भी तत्त्वार्थ श्रद्धान में रुकावट नहीं करता। परन्तु चश्मे की तरह वह आवरण रूप तो है ही। सम्यक्त्व मोहनीय में अतिचारों की संभावना है तथा औपशमिक और क्षायिक दर्शन के लिए मोह रूप भी है। इसलिए इसे दर्शन मोहनीय के भेदों में ग्रहण किया गया (2) मिश्र मोहनीय - इसका दूसरा नाम सम्यग् मिथ्यात्व मोहनीय है। जिस कर्म के उदय से जीव को तत्त्व रुचि नहीं है और अतत्त्व रुचि भी नहीं होती है, किन्तु डोलायमान स्थिति रहती है, उसे मिश्र मोहनीय कहते है। मिश्र मोहनीय का उदाहरण ग्रंथों में इस प्रकार मिलता है - जैसे नालिकेर द्वीप (जहाँ नारियल के सिवाय अन्य खाद्यान्न पैदा नहीं होता है) में उत्पन्न व्यक्ति ने अन्य के विषय में न कुछ सुना हो और न देखा हो तो उसे अन्न के बारे में न तो रुचि-राग होता है और न अरुचि द्वेष, किन्तु वह तटस्थ रहता है। इसी प्रकार जब मिश्र | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII पंचम अध्याय | 343)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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