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________________ तथा आचार्य हरिभद्र सूरि रचित 'श्रावक प्रज्ञप्ति'१०० 'धर्मसंग्रहणी'१०१ तथा 'नवतत्त्व'१०२ में आठों कर्मों के सत्तानवे (97) भेद किये है, क्योंकि उसमें नाम कर्म की 42 प्रकृति ली है। - पंचनवद्वयष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद् द्विपंच भेदा यथाक्रमम्।' पाँच, नव, दो, अट्ठाइस, चार, बयालीस, दो और पाँच भेद यथाक्रम से ज्ञानावरण आदि कर्मों के उत्तर भेद है। __ तथा भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों और बंध, उदय, सत्ता आदि के अपेक्षाओं से इन अवान्तर भेदों की संख्या एक सौ बीस, एक सौ बाईस, एक सौ अड़तालीस भी बतायी गयी है। जिसका उत्तर प्रकृति के विवेचन के बाद स्पष्ट किया जायेगा। (1) ज्ञानावरण - जीव जिस शक्ति के द्वारा संसार के समस्त पदार्थों का बोध प्राप्त करता है वह ज्ञान कहलाता है। आत्मा की इस शक्ति को आवृत्त करनेवाला कर्म ज्ञानावरण कहलाता है। इसके पाँच भेद है - पढमं पंचवियप्पं, मइसुयओहिमणकेवलावरणं। आचार्य हरिभद्रसूरि ने धर्मसंग्रहणी में ज्ञानावरणीय कर्म के पाँच भेद बताये है। (1) मतिज्ञानावरणीय (2) श्रुत ज्ञानावरणीय (3) अवधिज्ञानावरणीय (4) मनःपर्यव ज्ञानावरणीय (5) केवल ज्ञानावरणीय / मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान - इन पाँच ज्ञानों को आवृत्त करनेवाले कर्म मतिज्ञानावरण आदि कहलाते है। मतिज्ञान आदि का विवेचन ज्ञान-मीमांसा अध्याय में विस्तार से कर दिया है। अतः यहाँ संक्षेप में संकेत किया है। दूसरा दर्शनावरण के नव विकल्प है, पांच निद्रा और दर्शन चतुष्क।१०३ (2) दर्शनावरण - कोश में दर्शन के अनेक अर्थ उपलब्ध होते है। लेकिन यहाँ हम दर्शनावरण कर्म के भेदों का विचार कर रहे है। अतः दर्शनावरण शब्द में जो दर्शन शब्द है यह वस्तु के सामान्य बोध का परिचायक समझना चाहिए। अर्थात् सामान्य विशेषात्मक पदार्थों के आकार रूप विशेष अंश को ग्रहण नहीं करके जो केवल सामान्य अंश का निर्विकल्प रूप से ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते है।०४ आत्मा के दर्शन गुण को जो आच्छादित करता है वह कर्म दर्शनावरण कहलाता है। दर्शनावरण के असंख्यात भेद हो सकते है। लेकिन सरलता से समझने के लिए उन असंख्यात भेदों का समावेश मुख्य नव भेदों में हो जाता है - निद्दा-निद्दानिद्दा पयला तह होइ पयलपयला य। थीणड्डी अ सुरूद्दा निद्दापणगं जिणाभिहितं॥ नयणेयरोहिकेवलदसणवरण चउब्विहं होइ।१०५ (1) निद्रा (2) निद्रानिद्रा (3) प्रचला (4) प्रचला प्रचला (5) थीणद्धि (6) चक्षुदर्शन (7) अचक्षुदर्शन (8) अवधिदर्शन (9) केवलदर्शन। (1) निद्रा - जिस निद्रा में प्राणी सुख पूर्वक जग जाता है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / VA पंचम अध्याय | 341]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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