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________________ होते है, जिन्हें लोग कलश बनाकर अक्षत चन्दन आदि से चर्चित करते है और कुछ ऐसे होते है, जो मदिरा रखने के कारण नीच माने जाते है। इसी प्रकार जिस कर्म के कारण जीव का व्यक्तित्व प्रशंसनीय, पूजनीय बनता है उसे उच्च कहते है और जिसका व्यक्तित्व अप्रशंसनीय, अपूजनीय बनता है उसे नीच कहते है। इसमें मुख्य कारण गोत्र कर्म है। इस कर्म का स्वभाव ऐसा है कि यह जीव के अगुरुलघु गुण को प्राप्त नहीं होने देता है। (8) अंतराय कर्म - जो कर्म आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपयोग और वीर्य रूप शक्तियों का विघात करता है। दानादि में विघ्न रूप होता है अथवा मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति नहीं होने देता। 'जीवं चार्थ साधनं चान्तरा एति पततीत्यन्तरायम्।' इस कर्म के कारण जीव का सामर्थ्य केवल कुछ अंशों में ही प्रकट होता है। मनुष्य में संकल्प विकल्प शक्ति साहस, वीरता आदि की अधिकता या न्यूनता दिखती है, उसका कारण अंतराय कर्म है। . आचार्य हरिभद्र ने “श्रावक प्रज्ञप्ति' की टीका में भी इसी प्रकार की व्याख्या की है। दानादि विषयक विघ्न का नाम अन्तराय है, इस अन्तराय के कारणभूत कर्म को अन्तराय कहा जाता है। अथवा अन्तरा एति अन्तराय' इस निरुक्ति के अनुसार जो जीव और दानादि के मध्य में अन्तरा अर्थात् व्यवधान रूप से उपस्थित होता है उसे अन्तराय कर्म जानना चाहिए। इस कर्म का स्वभाव भंडारी के समान है - सिरि हरिअ समंए।'९० जह राया दाणाई ण कुणइ भंडारिए विकूलंमि। एवं जेणं जीवो कम्मं तं अन्तरायं पि॥५ जैसे राजा की आज्ञा होने पर भी भण्डारी के प्रतिकूल होने पर याचक को इच्छित वस्तु की प्राप्ति में बाधा पड़ जाती है, वैसे ही अन्तराय कर्म भी जीव को इच्छित वस्तु की प्राप्ति में बाधक बन जाता है। उसे इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होने देता। अर्थात् यह जीव अनन्त दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य लब्धि वाला है। परन्तु अंतराय कर्म के उदय से जीव को अनन्त दानादि प्रगट नहीं हो पाते है। इन आठ कर्मों का वर्णन आचार्य हरिभद्र रचित 'प्रज्ञापना सूत्र'९२ की टीका; तत्त्वार्थ टीका'९३ समर्थ टीकाकार मलयगिरि रचित 'धर्मसंग्रहणी की टीका'९४ में मिलता है तथा कर्म के स्वभाव का दृष्टांत 'नवतत्त्व'९५ में भी मिलता है। ____ ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों के मुख्य भेद को मूल प्रकृति और उनके अवान्तर भेदों को उत्तर प्रकृति कहते हैं। ज्ञानावरण आदि आठों मूल कर्मों की उत्तर प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है इह नाणदसणावरण वेअमोहाउ नामगोआणि। विग्धं च पणनवदु-अट्ठवीस चउतिसयदुपणविहं // 96 ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की नव, वेदनीय की दो, मोहनीय की अट्ठाईस, आयु की चार, नाम की एक सौ तीन, गोत्र की दो और अंतराय की पांच उत्तर प्रकृति है। कुल मिलाकर इनके भेद एकसौ अट्ठावन होते है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में 158 भेद बताये है। तथा उमास्वाति रचित 'तत्त्वार्थ सूत्र' 98 ‘प्रशमरति 59 | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII पंचम अध्याय |3401
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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