SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतः उसे कर्मबंध का कारण माना है। वाचक उमास्वाति ने इस सूत्र में अन्य चार हेतुओं को गौण मानकर कषाय को ही कर्मबंध का मुख्य हेतु माना है। (4) योग - मन-वचन और काया - ये तीन योग भी कर्म बंध के हेतु है। जीवात्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति इन तीन योग के सहायता से ही होती है। अतः योग भी कर्म बंध का कारण है। (5) प्रमाद - मोक्षमार्ग की उपासना में शिथिलता लाना और इन्द्रियादि के विषयों में आसक्त बनना यह प्रमाद है। विकथा आदि में रस रखना, आलस्यभाव रखना, आन्तरिक अनुत्साह, आगम विहित कुशल क्रियानुष्ठानादि है उनमें अनादर करना प्रमाद है। मन-वचन कायादि योगों, का दुष्प्रणिधान, आर्तध्यान की प्रवृत्ति प्रमाद भाव है। प्रमाद के पाँच प्रकार है। मज्ज-विषय कषाया निद्दा विकहा य पञ्चमा भणिया। ए ए पञ्च पमाया जीवा पांडति संसारे / / 21 मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा - ये पाँच प्रकार के प्रमाद बताए गए है जो जीवों को संसार में गिराते है। पतन के कारणभूत प्रमाद भी कर्म बंध का हेतु है। मिथ्यात्व आदि हेतुओं द्वारा कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का आत्मा के साथ क्षीर-नीरवत् या तप्त अयः पिण्ड वत् एकभाव होना ही बंध है। मिथ्यात्व आदि पाँच हेतुओं प्रज्ञापना 22 'धर्मसंग्रहणी'२३ तथा स्थानांगसूत्र' 24 में भी बताये है तथा कम्मपयडी आदि कर्म विषयक ग्रन्थों में प्रमाद को असंयम या कषाय में अन्तर्भाव करके चार हेतु कहे है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग।२५ इन चार हेतुओं पर सूक्ष्मता और मूल दृष्टि से देखा जाय तो मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद ये कषाय के अंग हैं। ये कषाय के स्वरूप से अलग नहीं पड़ते जिससे कर्मशास्त्र में कषाय और योग इन दोनों को कर्मबन्ध का हेतु मानकर भी कर्मत्त्व का विवचेन किया है। इस सम्बन्ध में कर्मशास्त्रियों का मन्तव्य यह है कि जीव क्रिया से आकृष्ट होकर उसके साथ संश्लिष्ट होने वाले कर्म परमाणुओं को कर्म कहते है। संसारी जीवों के क्रिया के आधार हैं - मन, वचन और काया। - इनकी क्रिया व्यापार से आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन कंपन होता है जिसे योग कहते हैं। इस योग व्यापार से कर्म परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं और आत्मा के राग, द्वेष, मोह आदि भावों का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बन्ध जाते है। इस प्रकार कर्म परमाणुओं को आत्मा के समीप लाने का कार्य योग करता है और आत्म प्रदेशों के साथ बन्ध कराने का कार्य कषाय करते हैं। इसीलिए योग और कषाय इन दोनों को कर्म ग्रन्थों में बन्ध हेतुओं के रूप में स्वीकार किया गया है। उक्त दृष्टिकोण के सिवाय कषाय और योग को कर्मबन्ध का हेतु मानने का दूसरा कारण यह भी है कि कर्म का बन्ध होते समय बध्यमान कर्म परमाणु में प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार अंशों का निर्माण होता है उनके कारण कषाय और योग है। प्रकृति और प्रदेश अंशों का निर्माण योग से तथा स्थिति व अनुभाग | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIA VINA पंचम अध्याय 327
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy