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________________ अंशो का निर्माण कषाय से होता है। ___ तथा तीसरा दृष्टिकोण कषाय और योग इन दो को मुख्य मानने का कारण यह भी है कि कषायों के नष्ट हो जाने पर योग के रहने तक कर्म का आश्रव होगा तो अवश्य, किन्तु कषाय के अभाव में वे वहाँ ठहर नहीं सकेंगे। अतः वे अपना फल नहीं दिखा सकते। उदाहरण के रूप में योग को वायु, कषाय को गोंद, आत्मा को दीवार और कर्म परमाणुओं को धूलि की उपमा दी जा सकती है। यदि दीवार पर गोंद आदि की स्निग्धता लगी हो तो वायु के साथ उड़कर आनेवाली धूलि दीवार से चिपक जाती है और यदि दीवार साफ सुथरी सपाट हो तो वायु के साथ उड़कर आनेवाली धूलि दीवार से न चिपक कर तुरन्त झड़ जाती है। ये मिथ्यात्व आदि योग पर्यन्त कर्म मात्र के समान बन्ध हेतु होने से सामान्य कारण कहलाते है। अर्थात् इनसे आत्म शक्तियों को आवृत्त करनेवाले ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मों का बन्ध अहर्निश आत्मा के साथ होता है। आत्मा के ज्ञान-दर्शन चारित्र आदि स्वाभाविक भाव है तथा राग द्वेष और मोह ये वैभाविक भाव है। आत्मा जब वैभाविक भावों में जाती है तब कर्मबन्ध के बन्धनों से बंधती है, इस बात से सभी दार्शनिक सहमत है। औपनिषद ऋषियों ने स्पष्ट कहा कि अनात्मा-देहादि में आत्मत्त्व का अभिमान करना मिथ्याज्ञान है, मोह है, और वही बन्ध है। न्यायदर्शन ने भी मिथ्याज्ञान को कर्मबन्ध का कारण माना है और मिथ्याज्ञान का दूसरा नाम मोह है तथा यही कर्मबन्ध का कारण है। वैशेषिक दर्शन और न्यायदर्शन समान तंत्रीय है। अतः न्याय दर्शन का समर्थन करते हुए उसने भी मिथ्याज्ञान को कर्मबन्ध का हेतु माना है। सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष के अभेद ज्ञान मिथ्याज्ञान को कर्मबन्ध का कारण माना है। योग में कर्मबन्ध का कारण क्लेश को बताया है और क्लेश का हेतु अविद्या माना है। इसी प्रकार वेदान्त दर्शन, भगवद्गीता में भी कर्मबन्ध का हेतु अविद्या कहा जैन दर्शन ने भी अन्य दर्शनकारों की तरह सामान्यतः मिथ्याज्ञान, मोह, अविद्या आदि को कर्मबन्ध का हेतु माना है। जैसे कि - रागो य दोसोश्चिय कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयंति।३२ अर्थात् राग द्वेष और मोह बन्ध के कारण है। इस कथन में दर्शनान्तरों की मान्यता का समावेश हो जाता है। आचार्य हरिभद्र सूरिने भी योगशतक' में राग-द्वेष तथा मोह को आत्मा के दूषण बताये है तथा उनको आत्मा के वैभाविक परिणाम कहे हैं।३३ तथा “श्रावक-प्रज्ञप्ति' में भी कर्मबन्ध के हेतु कहे है।३४ उपरोक्त बन्ध चार प्रकार का है - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ऐसा आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक-प्रज्ञप्ति में बताया है। सो बंधो पयइठिईअनुभाग पएसभेओ ओ।३५५ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA पंचम अध्याय | 328 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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