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________________ आत्मा और कर्म का जो सम्बन्ध है उसे वेदान्त दर्शनवादी तथा सौगत (बौद्ध) भ्रान्ति कहते है सांख्य उसे प्रवृत्ति कहते है तथा जैन दर्शनकार उसे ही बन्ध कहते है। जीव के साथ कार्मण वर्गणा के संमिश्रण की इस रासायनिक प्रक्रिया में दो क्रम है। सबसे प्रथम पुद्गल का ग्रहण होता है जिसे आश्रव कहते है तथा ग्रहण किये गये पुद्गलों का आत्मा में परिणमन - यह बंध तत्त्व कहलाता है। परिणमन यह क्रिया विशेष है। एक वस्तु अपना अस्तित्व खोकर दूसरे में मिल जाती है। जैसे शक्कर पहले जो अपने कण-कण रूप में थी वह दूध में मिल कर तन्मय हो जाती है, एकरस बन जाती है - यह परिणमन है। अंग्रेजी में दो क्रियाएँ प्रयोग में आती है। To Envolve इसका अर्थ है मिलना। परंतु इस मिलन में वस्तु अपने स्वतंत्र अस्तित्व को स्थायी रखकर मिलती है। एक व्यक्ति चारों में Envolve है अर्थात् मिला हुआ है। दूसरी क्रिया है To Desolve इसका अर्थ है पिघल जाना, एकरस हो जाना। शक्कर दूध में Desolve हो गई। उसी तरह कार्मण वर्गणा के परमाणु पहले आत्मा में Envolve होते है फिर कर्म बंध के मिथ्यात्वादि हेतु से Desolve होते है, एक रस हो जाते है। कर्म के मुख्य पाँच हेतु आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगशतक में बताये - 1. मिथ्यात्व, 2. अविरति, 3. कषाय, 4. योग, 5. प्रमाद।१९ मिथ्यात्व - मिथ्यात्व का अपर नाम मिथ्यादर्शन है। मिथ्या अर्थात् विपरीत झूठा और दर्शन अर्थात् देखना-विश्वास-श्रद्धा / मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन से विपरीत अर्थवाला है। तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है तथा उससे जो विपरीत अवस्था हो उसे मिथ्यादर्शन अर्थात् मिथ्यात्व कहते है। वह दो प्रकार का होता है। (1) अभिगृहीत और (2) अनभिगृहीत / दूसरों के उपदेश को सुनकर और ग्रहण करके जो अतत्त्व श्रद्धान होता है उसे अभिगृहीत मिथ्या दर्शन कहते है। इसके सिवाय जो परोपदेश से प्राप्त नहीं होता अथवा जो अनादिकाल से जीवों के साथ लगा हुआ है ऐसे अतत्त्व श्रद्धान को अनभिगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। मिथ्यात्व कर्मबंध का मूल कारण है। जैसे वस्त्र यानि कपडे की उत्पत्ति में तन्तु धागा कारण है। घड़ा बनाने में मिट्टी कारण है। धान्यादि की उत्पत्ति में बीज कारण है। वैसे ही कर्म की उत्पत्ति में मिथ्यात्व कारणभूत है। मिथ्यात्वं की उपस्थिति में कर्म की अधिक प्रकृतियाँ बनती है। अविरति जिस तरह अहिंसा-सत्य-अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह आदि व्रत है। उसका पालन करनेवाला व्रती कहलाता है। यम-नियम का पालन करने से कर्म का बंध नहीं होता है। इसके विपरीत हिंसा, असत्य, मैथुन आदि का सेवन करने अर्थात् अविरति में रहने के कारण आत्मा कर्म-बंध करता है, यह कर्मबंध का दूसरा हेतु है। (3) कषाय - जिससे संसार की वृद्धि हो जो आत्मा के शुद्ध स्वरूप को कलुषित बनाये समभाव की मर्यादा को तोडे उसे कषाय कहते है। कषाय सबसे अधिक कर्म बंधन में कारण है। तत्त्वार्थ में उमास्वाति महाराज ने बताया है कि "सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते" कषायादि से युक्त जब जीव होता है तब कर्म योग्य पुद्गलों को जीव खींचता है, ग्रहण करता है। कषाय भाव में जीव कर्म से लिप्त होता है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI पंचम अध्याय | 326]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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