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________________ स्वकीयम् जैन शासन अगाध ज्ञानराशि का गहनतम सागर है। जो इस विराट् सागर में गोते लगाते हैं, वे सिद्धान्तरूपी गुप्त रत्नों को प्राप्त करते है एवं स्वयं के जीवन को सम्यग् ज्ञानमय बनाकर अक्षय अनुपम सुख की अनुभूति के साथ आत्मानंद को प्राप्त करते हैं। उस प्रकृष्ट सुख की अनुभूति चारित्रवान् एवं श्रद्धावान् आत्माओं को विशेष रूप से होती है क्योंकि चारित्रवान् आत्माएँ विषयों से विरक्त बनकर ज्ञान की ओर विशेष आकर्षित होते हुए श्रद्धा से प्रत्येक पदार्थ के परमार्थ को ज्ञात कर जीवन पर्यन्त उसको हृदय में स्थिर करते हैं / यही वास्तविक स्थिति आचार्य हरिभद्र के व्यक्तित्व में उपलब्ध होती है। गृहस्थ जीवन में यद्यपि वे विद्वान थे किन्तु तब वे वीतराग प्रवचन के प्रति श्रद्धासम्पन्न नहीं थे एवं सम्यग् चारित्र से विरहित थे जब उनको चारित्रवान् याकिनी महत्तरा श्रमणीवृन्द का योग मिला तब उनके जीवन में भारी परिवर्तन आया। श्रद्धा, स्वाध्याय एवं चारित्र की पराकाष्ठा से युक्त याकिनी महत्तरा ने जैन शासन के प्रतिपक्षी पण्डित प्रवर "हरिभद्र" के जीवन को अंधकार से प्रकाशमय बनाया, अश्रद्धा रूपी कंटकाकीर्ण जीवन उपवन को श्रद्धा विरति के सुमन से सुरभित कर दिया एवं स्वयं हरिभद्र ने याकिनी महत्तरा के प्रति कृतज्ञभाव धर्ममाता के रूप में प्रकट किया। सुप्रवृत्तिमय भावों से ओतप्रोत होते हुए वे 'धर्मसूनु' बन गये। तत्काल ज्ञानार्जन हेतु आचार्यश्री के समीप गये और चारित्र सम्पन्न बन गये। जैन आगमों के अध्ययन के महायज्ञ को प्रारम्भ कर आगमों के विशेष विज्ञाता बने / जैन शासन के प्रति एवं परमात्मा की द्वादशांगी के प्रति पूर्णतः समर्पित हो गये। तब उनकी अन्तरात्मा में आनंद की तरंगे उछलने लगी, आँखों में से हर्षाश्रु की धारा बहने लगी और मुख से सहसा उद्गार निकल पडे - ___“अहो ! मुझे जिनागम प्राप्त नहीं होते तो मेरी क्या अवदशा होती? आगमों के अध्ययन के साथ साहित्य जगत का एक भी पक्ष उनसे अछूता नहीं रहा। इत्थं प्रकारेन अपने जीवन को श्रुत साधना से सुसज्जित कर लिया। जिस समय दार्शनिकों का परस्पर मत-मतान्तर रुपी ताण्डव नृत्य मचा हुआ था सभी अपने अपने पक्ष को स्थापित करते हुए एक दूसरे का खण्डन मण्डन कर रहे थे ऐसे समय में समन्वयवाद के शंख को बजाते हुए, साहित्य जगत में समावतरित "श्रीमद् हरिभद्रसूरि" ने सभी दार्शनिकों को समन्वयवाद का शिक्षा-बोध देकर, वैर-वैमनस्य से विरक्त बनाया। ऐसे समन्वयवाद के पुरोधा समर्थ MINIA 22001
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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