________________ तार्किक शिरोमणि आचार्य श्री हरिभद्रसूरि की कृतियों का संयम जीवन में अध्ययन करते हुए उनकी समन्वयवादिता एवं दार्शनिकता मेरे दृष्टिपथ में आयी, साथ ही उन कृतियों का अर्थ चिन्तन करते हुए मेरी मानस मेधा में एक स्फुरणा प्रस्फुरित हुई, कि क्यों न विद्वद्जनों एवं साहित्य-शोधकों के समक्ष उनके साहित्य का निचोड़ रुप दार्शनिकता का नवनीत रखा जाय, जो जिज्ञासुओं के लिए सुलभ बन सके। आचार्य देवेश राष्ट्रसंत श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी म. एवं मुनि भगवंतों के साथ वार्तालाप करते हुए साथ ही विद्वानों के मुखकमल से हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों की महानता के उद्गार से प्रेरणा मिलती रही। उसी प्रेरणा एवं प्रज्ञा प्रसाति का फलस्वरुप प्रस्तुत शोध प्रबन्ध ग्रन्थ है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 1444 ग्रन्थों की रचना की, लेकिन सम्पूर्ण साहित्य आज उपलब्ध नहीं है। कालक्रम में कितना ही साहित्य विनष्ट हो चुका है। अत्यधिक पुरुषार्थ करने पर भी बडी कठिनाई से 70-80 ग्रन्थ उपलब्ध हुए। उन ग्रन्थों में आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने दार्शनिक विचारों को जिस ढंग से विवेचित किया है उन सभी को प्रस्तुत / करना मेरे लिए शक्य नहीं है, फिर भी अधिक से अधिक दार्शनिक वैशिष्ट्य को व्याख्यात. करने का प्रयास किया है। - प्रस्तुत ग्रन्थ सात अध्यायों में विभक्त है, जिस के प्रथम अध्याय में आचार्य श्री हरिभद्रसूरि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विचार विमर्श प्रस्तुत है। प्रतिज्ञाबद्ध, उदारवादी, निरभिमानी, समन्वयवादी आदि विशेषताओं से विशिष्ट व्यक्तित्व बनाकर वाङ्गयी वसुन्धरा पर कल्पवृक्ष बनकर, सभी की जिज्ञासा की पूर्ति करने में समर्थ बने है। उनका कृतित्व ही उनके व्यक्तित्व को उजागर करता हुआ उन्हें अक्षय बना गया है। द्वितीय अध्याय में उनके व्यक्तित्व को आलोकित करने वाली कृतियों में अवगाहित | दार्शनिक तत्त्व, सत्पद प्ररुपणा, लोकवाद, अस्तिवाद, अनेकान्तवाद, सर्वज्ञता रादि को समन्वयवाद के तराजू से तोलकर अनेकान्तवाद की कसौटी पर कसकर विपक्षियों के वैर-वैमनस्य को मिटाकर अज्ञ जीवों को युक्तियुक्त बोध देने का प्रयास किया गया है। तृतीय अध्याय में श्री हरिभद्रसूरि के ज्ञान की अनुपमेयता, विशिष्टता, ज्ञान के भेद प्रभेदों का दिग्दर्शन किया गया है। ज्ञान सहित जीवन स्व-पर कल्याणकारी बनता है। ज्ञानी अपने कर्मों को क्षण भर में क्षय कर लेते हैं, जबकि अज्ञानी आत्मा उन्हीं कर्मों को करोडों भवो में भी नष्ट नहीं कर सकते हैं, अतः जीवन में प्रतिपल ज्ञान प्राप्ति का पुरुषार्थ 23