________________ शीत और उष्ण तथा चर्या और निषद्या ये चार परिषह में से समकाल में दो अविरोधी परिषह होते है अत: समकाल में एक जीवको उत्कृष्ट से 20 परिषह होते है३२४ तथा तत्त्वार्थ टीका में शीत उष्ण में से एक और चर्या, शय्या, निषद्या में से दो इस प्रकार तीन परिषहों का एक काल में अभाव रहता है अतएव बावीस परिषहों में से तीन का अभाव हो जाने पर एक समय में एक जीव को उन्नीस परिषह घट सकते है।३२५ स्त्री परिषह, प्रज्ञा परिषह और सत्कार ये तीन परिषह अनुकुल है और शेष प्रतिकूल है तथा स्त्री और सत्कार परीषह ये दो शीतल है और शेष उष्ण परिषह है। __इस प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थ टीका में पूर्वाचार्य का अनुसरण करते विस्तार से इनका विशद विवेचन किया है। परिषह वे कष्ट है जो परिस्थितियों, ऋतुओं, मनुष्यों, देवो, तिर्यचों आदि की प्रतिकूलता के कारण आते है यद्यपि इनमें मूल कारणं साधक के अपने पूर्वकृत कर्म ही होते है लेकिन बाह्य निमित्त परिस्थितियाँ आदि होते है। परिषहों को साधक आत्मा समभाव पूर्वक सहन करते हुए घाति तथा अघाति कर्मों का क्षय करके सिद्धि पद को भी प्राप्त कर लेते है। _ परिषह साधक के आत्मा की कसौटी है स्वयं तीर्थकर की आत्मा भी इन परिषहों को सहन करके कर्मों का नाश करते है। इनका वर्णन 'कर्मप्रवाद' नाम के पूर्व में वर्णित है द्वादशाङ्गी का विषय होने के कारण आज दिन तक सभी के लिए मान्य रहा है। अन्यदर्शनो में शायद ही ऐसे परिषहों का वर्णन होगा क्योंकि 'गीता' आदि में स्थितप्रज्ञ' आदि कि व्याख्या मान - अपमान में सम आदि विशेषण मिलते है लेकिन इतने परिषह तो एक जैन साधु - साध्वी ही सहन कर सकते है / आचार वैशिष्ट्य आचार एक विराट और विशाल निधि है। जिसमें अनेक रत्न भरे हुए है। जो आत्मा उसमें निमग्न हो जाता हैं, वह अद्भूत अपूर्व निधि को प्राप्त करता है। उसके जीवन का सम्पूर्ण कायाकल्प हो जाता है। उसका प्रत्येक व्यवहार अन्य जीवों की अपेक्षा से भिन्न हो जाता है। उसको प्रत्येक क्रियाओं में संवेदन की अनुपम झलक मिलेगी पापों के प्रति दुःख दर्द होगा। इन्द्रिय रूपी अश्वों को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में ले जाता है वह . राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्मबन्ध नहीं करता है। आचारों का व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनाचार को भी जानना होगा। क्योंकि हेय (अनाचार) को समझे बिना उपादेय (आचार) का सम्पूर्ण ग्रहण शक्य नहीं है जैसे कि जीव आत्मा का निष्पक्ष ज्ञान प्राप्त करने के लिए दर्शनकार आ. हरिभद्रसूरि आदि प्रथम पूर्व की स्थापना करते फिर उत्तरपक्ष की जिससे पदार्थ की सत्यता साबित होती है। जो हमें धर्मसंग्रहणी' सर्वज्ञ - सिद्धि आदि ग्रन्थों में देखने को मिलते है। उसी प्रकार आचार के विषय में भी आ. शय्यंभवसूरि ने श्रमण के लिए ‘दशवैकालिक ग्रन्थ' में क्षुल्लकाचार तृतीय अध्य्यन आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII MINIA चतुर्थ अध्याय | 307 )