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________________ 17. तृणस्पर्श परिषह-गच्छ बाहर निकले हुए जिनकल्पी आदि कल्पधारी मुनि को तृण का संथारा होता है __उससे तृण की अणीया शरीर के लगने पर वस्त्र की इच्छा न करे तथा गच्छ धारी मुनि को वस्त्र का संथारा होता है वह प्रतिकूल होने पर दीनता धारण न करे। 18. मल परिषह-साधु को शरीर शुश्रुषा रूप स्नान का निषेध है जिससे परसेवा आदि से शरीर पर मेल आदि जम गया हो दुर्गंध आती हो तो भी उसको दूर करने के लिए स्त्रान की इच्छा न करे। 19. सत्कार परिसह - साधु स्वयं का बहुत मान - सत्कार लोक में देखकर मन में हर्ष न प्राप्त करे और सत्कार न होने से उद्वेग भी न करे / 20. प्रज्ञा परिषह - स्वयं ज्ञानी होने से अनेकों को उपदेश प्रत्युत्तर देकर संतुष्ट करता है जिससे लोकों में बहुश्रुत की प्रशंसा करते है वह प्रशंसा सुनकर ज्ञानी अपने ज्ञान का न गर्व करे परंतु यह विचारे के मेरे से अनंतगुण बुद्धि वाले ज्ञानी हो गये है उनके सामने में कुछ नहीं हूँ। 21. अज्ञान परिषह-साधुस्वयं की अल्पबुद्धि होने से आगम आदि के तत्त्वों को न जाने तो अपनी अज्ञानता का संयम में उद्वेग हो ऐसा खेद न करे परंतु मतिज्ञानावरणीय आदि का उदय समझकर संयम भाव में लीन बने। 22. सम्यक्त्व परिषह-अनेक कष्ट और उपसर्ग आने पर भी सर्वज्ञ भाषित श्रद्धा से चलित नहीं बनना। परदर्शन का चमत्कार देखकर मोहित नहीं बनना।३२२ सुधर्मास्वामी कहते है काश्यप गोत्रीय भगवान महावीर द्वारा कहे हुए 22 परिषह जिन्हें सुनकर, जानकर, अभ्यास द्वारा परिचित कर, जीतकर उनकी प्रबलता को सहनीय बनाकर भिक्षा हेतु पर्यटन करता हुआ भिक्षु इससे आक्रान्त होने पर भी अपने संयम मार्ग से विचलित नहीं होता है। 22 परिषह में कर्मका उदय और गुणस्थान का कोष्टक परिषह / किस कर्म के उदय से कितने गुणस्थानक तक | क्षुधा, पीपासा - शीत-उष्ण | अशाता वेदनीय के उदय से , 1 से 13 | दंश - चर्या - शय्या - मल |वध-रोग - तृणस्पर्श - 11 | प्रज्ञा परिषह ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से अज्ञान परिषह ज्ञानावरणीय के उदय से सम्यक्त्व परिषह दर्शन मोहनीय के उदय से अलाभ परिषह लाभान्तराय के उदय से | आक्रोश अरति - स्त्री-नैषेधिकी चारित्र मोहनीय के उदय से अचेल - याचना - सत्कार - 7 चारित्र मोहनीय के उदय से से 9323 . से [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIR चतुर्थ अध्याय | 306)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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