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________________ वैयावच्च करते है और एक वाचनाचार्य बनता है इस प्रकार 18 मास में परिहार कल्प का तप पूर्ण होता है। इस कल्प में तपश्चर्या करने वाले मुनि तपश्चर्या पर्यन्त (छ: मास तक) परिहारि अथवा ‘निर्विशमानक' * कहलाते है और तपश्चर्या करने के बाद निर्विष्टकायिक' कहलाते है तथा वैयावच्च करने वाले ‘अनुपहारी' कहलाते है और गुरू के रूप में स्थापित वाचनाचार्य कहलाते है। एक मुनि उत्कृष्ट से चारों संज्ञा वाला बन सकता है। परिहार कल्प के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट तीन भेद होते है जैसे कि ग्रीष्मकाल में जघन्य उपवास मध्यम छट्ठ और उत्कृष्ट अट्ठम, शीतकाल में जघन्य छट्ठ मध्यम अट्ठम और उत्कृष्ट चार उपवास चातुर्मास में जघन्य अट्टम, मध्यम चार उपवास, उत्कृष्ट पाँच उपवास पारणा में आयंबिल करते है तथा अनुपहारी और वाचनाचार्य तपप्रवेश सिवाय हमेशा आयंबिल करते है / तप पूर्ण होने पर अर्थात् 18 मास के बाद वे मुनि पुन: इसी तप को करते है अथवा जिन कल्पी बनते है, अथवा स्थविर कल्प में प्रवेश करते है। यह कल्प अंगीकार करने वाले प्रथमसंघयणी पूर्वधर लब्धिवाले ऐसे नपुंसकवेदी अथवा पुरूषवेदी मुनि होते है ये मुनि आँख में तृण गिर जाने पर भी नहीं निकालते है। अपवाद मार्ग का सहारा नहीं लेते है तीसरे प्रहर में अभिग्रह पूर्वक भिक्षा ग्रहण करते है, भिक्षा सिवाय के काल में कार्योत्सर्ग में रहते है। किसी को दीक्षा नहीं देते है, परन्तु उपदेश देते है। नया सिद्धान्त नहीं पढते पूर्व का स्मरण करते इत्यादि / इस चारित्र की विशुद्धि प्रथम के दो चारित्र से विशेष होती है। . 4) सूक्ष्मसंपराय चारित्र - जिससे संसार में परिभ्रमण होता है वह संपराय / कषायों से संसार में परिभ्रमण होता है अतः संपराय यानि कषाय / सूक्ष्म अर्थात किट्ठिरुप (चूर्णरुप) बनाना अत्यंत जघन्य संपराय अर्थात् लोभ कषाय, इसके उदयरूप जो चारित्र वह सूक्ष्मसंपराय चारित्र कहलाता है। क्रोध मान और माया इन तीन कषायों के क्षय होने के बाद और संज्वलन लोभ में भी बादर संज्वलन लोभ का उदय विनाश होने के बाद जब केवल एक सूक्ष्म लोभ का ही उदय होता है तब 10 वे गुणस्थानक में वर्तते जीव को सूक्ष्म संपराय चारित्र होता है। इस चारित्र के भी दो भेद है, उपशम श्रेणि से गिरते जीव को 10 वे गुणस्थानक में पतित दशा के अध्यवसाय होने से संक्लिश्यमान सूक्ष्मसंपराय और उपशमश्रेणि चढ़ते दशाके अध्यवसाय होने से विशुध्यमान सूक्ष्म संपराय चारित्र होता है। 5) यथाख्यात चारित्र - यथा जैसा ‘ख्यात' कहा है अर्थात् जैसा अरिहंत भगवान ने सिद्धांत में कहा है वैसा चारित्र ‘यथाख्यात' कहलाता है। इस चारित्र में मोहनीय की 28 प्रकृति में से एक भी प्रकृति उदय में नहीं होती लेकिन सत्ता में भजना होती है। इस चारित्र के भी दो भेद है उसमें “वे गुणस्थानक में स्थित जीव को मोहनीय की प्रकृति सत्ता में है परन्तु उदय में नहीं होने से अकषायी होने से उपशान्त यथाख्यात चारित्र और क्षपकश्रेणिवंत को मोहनीय का सर्वथा क्षय होने से सत्ता और उदय दोनों में अभाव होने से अकषायी होने से | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII VA चतुर्थ अध्याय | 303
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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