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________________ क्षायिक यथाख्यात चारित्र कहलाता है / इस प्रकार यथाख्यात चारित्र 11-12-13-14 इन चार गुणस्थानक में होता है। 11-12 में केवलज्ञान होने से छद्मस्थ यथाख्यात और 13-14 में केवलज्ञान होने से कैवलिक यथाख्यात चारित्र ये भी भेद होते।३१५५ इस प्रकार पाँच चारित्र का वर्णन तत्त्वार्थसूत्र,३१६ संबोध प्रकरण,३९७ ज्ञानार्णव,३९८ नवत्तत्व१९ आदि में मिलता है तथा तत्त्वार्थटीका३२० में इसका विस्तार से वर्णन आचार्य हरिभद्रसूरि ने किया है। बावीस परिषह जैन आगमों में संयम चारित्र के साथ - साथ परिषह शब्द भी जुडा हुआ है। क्योंकि संयम की शुद्धि परिषह पर आधारित है। जैसे सोने की परीक्षा अग्नि द्वारा होती है। वैसे ही चारित्रवान् आत्मा की परीक्षा परिषहों के द्वारा होती है। गजसुकुमाल, अवंतिसुकुमाल, मेतारजमुनि आदि ने मरणान्त परिषहो को सहन किये थे तथा स्थूलिभद्र जैसों ने स्त्री आदि अनुकुल परिषहो को सहन किये थे। बावीस परिषह में अनुकुल और प्रतिकूल दोनों प्रकार के परिषह होते है। इनको न जितने पर या इनके अधीन हो जाने पर रत्नत्रयरूप धर्म आराधना में विघ्न उपस्थित होते है। इष्ट विषय में रागभाव की एकान्त प्रवृत्ति और उसी प्रकार अनिष्ट विषय में द्वेष की प्रवृत्ति भी मुमुक्षुओं के लिए छोड़ने योग्य है अत: परिषहों को समताभाव से सहन करने चाहिए है वही सच्ची आराधना है। परि अर्थात् चारों तरफ से सह यानि सहन करना / अर्थात् चारों तरफ से आने वाले कष्टों को सहन करना लेकिन धर्ममार्ग का त्याग नहीं करना ही परिषह कहलाता है / परिषहों को समताभाव से सहन करने पर आत्मगुणों की प्राप्ति होती है। अत: ‘उत्तराध्ययन' आदि आगम ग्रन्थों में भी परिषह का उल्लेख मिलता है। जैसे कि इमे खलु ते बावीस परीसहा समणेण भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया जे भिक्खू सोच्चा नच्चा जिच्च अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयन्तो पुट्टो नो विहन्नेजा, तं जहा दिगिच्छा परीसहे, पिवासा परीसहे, सीय परीसहे, उणिस परीसहे, दंस मसय परीसहे, अचेल परीसहे, अरइ परीसहे, इत्थी परीसहे, चरिया परीसहे, निसीहिया परीसहे, सेजा परीसहे, अक्कोस परीसहे, वह परीसहे, जायणा परीसहे, अलाभ परीसहे, रोग परीसहे, तण-फास परीसहे, जल्लपरीसहे, सत्कार परिसहे, पन्ना परीसहे, अन्नाण परीसहे, दंसण परीसहे।३२१ 1. क्षुधा परिषह-क्षुधा वेदनीय सभी अशाता वेदनीय से अधिक है अतः उस क्षुधा को सहन करनी लेकिन अशुद्ध आहार ग्रहण नहीं करना तथा आर्तध्यान नहीं करना, क्षुधा परिषह विजय कहलाता है। 2. पिपासा परिसह-प्यास को सम्यक् प्रकार से सहन करना परन्तु सचित्त जल अथवा मिश्रित जल का उपयोग नहीं करना निर्दोष ही लेना। 3. शीत परिषह-अतिशय ठंडी पडने पर भी अकल्पनीय वस्त्र की इच्छा अथवा अग्नि आदि में तापने की इच्छा मात्र न करे। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII चतुर्थ अध्याय | 3047
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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