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________________ 1) प्रथम सामायिक चारित्र-रागादि विषमता से रहित ज्ञानादि गुणों का लाभ होना ही सामायिक है। सम्पूर्ण सावद्ययोग की विरति होना ही सामायिक है। सामायिक की यह व्याख्या सामायिक के भेदों की विवक्षा विना सर्वमान्य है। सामायिक के भेदों की विवक्षा करने पर ही सामायिक शब्द और अर्थ से भिन्न भिन्न बनती है। यहाँ पर सामायिक में नवमा सामायिक व्रत नहीं लिया गया है परन्तु सामायिक के इत्वरकथित और यावत्कथित ये दो भेदों से सामायिक को ग्रहण किया है। जो थोडे समय के लिए होती है वह इत्वरकथित कहलाती है। भरतक्षेत्र तथा ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में प्रथम छोटी दीक्षा देते है वह इत्वर सामायिक चारित्र कहलाता है क्योंकि वह थोडे समय ही रहता है / बाद में बडी दीक्षा दी जाती है। तथा मध्यम . के बावीस तीर्थंकरों और महाविदेह में प्रथम छोटी दीक्षा फिर बडी दीक्षा ऐसा नियम नहीं है उन्हें प्रथम से ही निरतिचार चारित्र का पालन होता है / अत: उनकी जीवनपर्यन्त होने से यावत्कथित सामायिक चारित्र कहलाता है। इन दोनों चारित्र में इत्वरकथित सामायिक चारित्र सातिचार और उत्कृष्ट से छ: महिना का होता है तथा यावत्कथित सामायिक चारित्र निरतिचार और जीवनपर्यन्त होता है। 2) छेदोपस्थापन चारित्र जिसमें पूर्व पर्याय का छेद करके महाव्रतों का आरोपण करने में आता है वह छेदोपस्थापन चारित्र कहलाता है इसके भी दो भेद बताये है सातिचार और निरतिचार / मुनि ने मूलगुण का घात किया हो तो पूर्व पाला हुआ दीक्षा पर्याय का छेद कर पुनः चारित्र उच्चराना वह सातिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र तथा लघु दीक्षा बाद मुनि को छज्जीवनिका अध्ययन पढने के बाद उत्कृष्ट छ: महिने के बाद बड़ी दीक्षा देनी वह तथा एक तीर्थंकर का मुनि दूसरे तीर्थंकर के शासन में प्रवेश करते है तब उनको पुन: चारित्र उच्चराना पड़ता है जैसे कि पार्श्वनाथ भगवान के साधुओ चार महाव्रत का त्याग करके श्री महावीर भगवान के पाँच महाव्रतवाला शासन अंगीकार करता है वह तीर्थ संक्रान्तिरूप निरतिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र जानना। यह छेदोपस्थापनिक चारित्र भरतादि 90 क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम भगवान के शासन में होते है / परंतु मध्यम 22 तीर्थंकर के शासन में और महाविदेह में सर्वथा नहीं होता है। ___3) परिहारविशुद्धि चारित्र-परिहार अर्थात् त्याग अर्थात् गच्छ के त्यागवाला जो तप विशेष और उसके द्वारा होने वाली चारित्र की विशुद्धि विशेष शुद्धि उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते है वह इस प्रकार ग्रन्थों में बताया है - स्थविर कल्पी मुनिओं के गच्छ में से गुरु की आज्ञा लेकर नव साधु गच्छ के बाहर निकलकर केवलीभगवान् के पास जाकर अथवा श्रीगणधरादि के पास अथवा पूर्व में परिहार कल्प अंगीकार किया हो ऐसे साधु के पास जाकर परिहार कल्प अंगीकार करते हैं उसमें चार साधु परिहारक होते है अर्थात् छ मास तप करते है। दूसरे चार साधु उनकी वैयावच्च करते है ? और एक साधु वाचनाचार्य गुरू बनता है। उन परिहार छ: मुनियों का तप पूर्ण होने पर वैचावच्च करने वाले चार मुनि छ:मास तप करते है और तपस्या वाले मुनि उनकी वैयावच्च करते है। इस प्रकार दूसरे छ: मास का तप करते है और तपस्या वाले मुनि उनकी वैयावच्च करते है। इस प्रकार दूसरे छ: मास का तप पूर्ण होने पर वाचनाचार्य छ: मास तप करते है और जघन्य एक और उत्कृष्ट से सात मुनि [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII व चतुर्थ अध्याय | 302
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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