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________________ पेहातिजोगकरणं तं सव्वं संजमो नेओ॥३०९ पांच महाव्रतों का ग्रहण चार कषायों पर विजय पांच इन्द्रियों का निरोध और तीन गुप्तियों से गुप्त रहना यह संयम के सत्रह भेद है अथवा प्राणातिपात आदि पांच आश्रवों का निरोध करना, पांच इन्द्रिय और चार कषाय का निग्रह करना तथा मन-वचन और काया के तीन दण्ड से विरत बनना भी संयम के सत्रह भेद है। आ. उमास्वाति जी ने भी प्रशमरति'३१० में संयम इन्ही सत्तरह भेदों का वर्णन किया है। | पाँच चारित्र जैन आगमों में चारित्र शब्द का प्रयोग किया गया है क्योंकि “चरित्तधम्मो समणधम्मो ति" वचनात्। चारित्र धर्म ही श्रमणधर्म ऐसा वचन होने से। और श्रमणधर्म ही संयम है। 311 चारित्र शब्द की व्युत्पत्ति ऐसी मिलती है “चर्यते मुमुक्षिभिरासेव्यते तदिति चर्यते वा गम्यतेऽनेन निर्वृताविति चारित्रम्।” मोक्षाभिलाषी आत्माओं के द्वारा जिसका आसेवन किया जाता है आचरित किया जाता है, प्राप्त किया जाता है अथवा इसके द्वारा निवृत्ति को प्राप्त करते है वह चारित्र है। अथवा निरुक्ति के न्याय से यह भी व्युत्पत्ति होती है “चयस्य कर्मणां रिक्तीकरणात् चरित्रं / संचित किये हुए कर्मो को क्षय करना ही चारित्र है। अर्थात् संसार के कारणभूत कर्म बन्ध के लिए योग्य जो क्रियाएँ उनका निरोध कर शुद्ध आत्म स्वरूप का लाभ करने के लिए जो सम्यग्ज्ञान पूर्वक प्रवृत्ति होती है उसको चारित्र कहते है।३१२ आचार्य हरिभद्र ने चारित्र को मोक्ष का साधन कहने के साथ ज्ञान दर्शन के साधक भी चारित्र को बताया है। एअंच उत्तमं खलु, निव्वाणपसाहणं जिणा बिंति। जं नाणदंसणाणवि फलमेअंचेव निद्दिट्ठ॥३१३ चारित्र यह मोक्ष का अवश्य उत्तम साधन है अर्थात् इसी कारण चारित्र के उपाय में प्रयत्न करना चाहिए। कारण कि ज्ञान, दर्शन का फल पारमार्थिकता से चारित्र ही है क्योंकि ज्ञान दर्शन चारित्र के साधक है। चारित्र के मुख्य पाँच भेद मिलते है वे इस प्रकार है। सामाइयत्थ पढमो छेओवट्ठावणं भवे बीअं। परिहारविसुद्धीयं सुहुमं तह संपरायं च // तत्तो य अहक्खायं खायं सव्वम्मि जीवलोगम्मि। जं चरिऊण सुविहिआ वच्चंति अणुत्तरं मोक्खं // 314 प्रथम सामायिक, दूसरा छेदोपस्थापनीय, तीसरा परिहारविशुद्धि, चौथा सूक्ष्म संपराय, पाँचवा यथाख्यात चारित्र / 314 आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII IIIIINA चतुर्थ अध्याय | 301)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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