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________________ करता है। श्रमण मन में भी रात्रिभोजन की इच्छा न करे क्योंकि रात्रिभोजन में अनेक सूक्ष्म और त्रस जीवों की हिंसा की शक्यता रहती है। इसलिए श्रमणों के लिए रात्रिभोजन का निषेध किया गया है। ये श्रमण के मूलव्रत है। अष्टांगयोग में महाव्रतों को यम कहा गया है। आचार्य पतञ्जलि के अनुसार महाव्रत जाति, देश, काल आदि की सीमाओं से मुक्त एक सार्वभौम साधना है / 281 महाव्रतों का पालन सभी के द्वारा निरपेक्ष रूप से किया जा सकता है। वैदिक परम्परा की दृष्टि से संन्यासी को महाव्रत का सम्यक् रूप से पालन करना चाहिए उसके लिए हिंसाकार्य निषेध है।२८२ असत्य भाषण और कटु भाषण भी वर्ण्य है।२८३ ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन भी संन्यासी को पूर्णतया करना चाहिए। संन्यासी के लिए जल, पात्र, जल छानने का वस्त्र, पादुका, आसन आदि कुछ आवश्यक वस्तुए रखने का विधान है।८४ धातुपात्र का प्रयोग संन्यासी के लिए निषिद्ध है। आचार्य मनु ने लिखा है संन्यासी जलपात्र या भिक्षापात्र मिट्टी, लकडी या तुम्बी या बिना छिद्र वाला बांस का रख सकता है।२८५ यह सत्य है जैन परम्परा में अहिंसा का जितना सूक्ष्म विश्लेषण हुआ उतना शायद ही अन्य दर्शनों में हुआ होगा। क्योंकि वैदिक ऋषियों ने जल, अग्नि, वायु आदि में जीव नहीं माना है। यही कारण है कि वे जल स्नान को अधिक महत्त्व देते है। पंचाग्नि तपने को धर्म माना है कन्द मूल के आहार को ऋषियों के लिए श्रेष्ठ स्वीकारा गया है। तथापि हिंसा से बचने का उपदेश तो दिया ही गया है। ऋषियों ने सत्य बोलने पर बल दिया है। अप्रिय सत्य को वर्ण्य कहा है। वही सत्य हितकारी है जिसमें सभी प्राणियों का हित हो। इसी तरह अन्य व्रतों की तुलना महाव्रत के साथ वैदिक परम्परा की दृष्टि से की जा सकती है। जिस प्रकार जैन परम्परा में महाव्रतों का निरूपण है वैसा महाव्रतों का वर्णन बौद्ध परम्परा में नहीं है। विनय पिटक महावग्ग२८६ में बौद्ध भिक्षुओं के लिए दस प्रकार के शील का वर्णन है जो मिलते जुलते है। दस शील इस प्रकार है प्राणातिपात विरमण 2) अदत्तादानविरमण 3) कामेसु मिच्छाचारविरमण 4) मूसावाद विरमण 5) सुरा मेरय मद्य विरमण 6) विकाल भोजन विरमण 7) नृत्य - वादित्र विरमण 8) माल्य - धारणगन्ध विलेपण विरमण 9) उच्चाशय्या महाशय्या विरमण 10) जातरूप रजतग्रहण विरमण / महाव्रत और शील में भावों की दृष्टि से बहुत कुछ समानता है। सुत्तनिपात्त२८७ के अनुसार भिक्षु के लिए मन - वचन काया और कृत - कारित तथा अनुमोदित हिंसा का निषेध किया गया है। विनयपिटक२८८ के विधानुसार भिक्षु के लिए वनस्पति तोड़ना भूमि खोदना निषिद्ध है क्योंकि उससे हिंसा होने की संभावना है। बौद्ध परम्परा में पृथ्वी पानी में जीव की कल्पना तो की है पर भिक्षु आदि के लिए सचित्त जल का निषेध नहीं है केवल जल छानकर पीने का विधान है। जैन श्रमण की तरह बौद्ध भिक्षुक भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति भिक्षावृत्ति के द्वारा करते है विनयपिटक२८९ में कहा गया है - जो भिक्षु बिना दी हुई वस्तु को लेता है वह श्रमणधर्म से च्युत होता है। संयुक्त निकाय२९० में लिखा यदि भिक्षुक फूल को सूंघता है / वह चोरी करता है। बौद्ध भिक्षुक के लिए स्त्री स्पर्श भी वर्ण्य माना है।२९१ आनन्द ने तथागत बुद्ध से प्रश्न किया भदन्त ! हम किस प्रकार स्त्रियों के साथ बर्ताव करें ? तथागत ने कहा-उन्हें मत देखों / आनन्द [ आचार्य हरिभट का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / चतुर्थ अध्याय | 298
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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