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________________ ने पुनः जिज्ञासा व्यक्त की यदि वे दिखायी दे जाए तो हम उनके साथ कैसा व्यवहार करें ? तथागत ने कहा उनके साथ वार्तालाप नहीं करना चाहिए। आनंद ने कहा भद्दन्त - उनके साथ वार्तालाप का प्रसंग उपस्थित हो जाए तो क्या करना चाहिए। बुद्ध ने कहा उस समय भिक्षुक को अपनी स्मृति को संभाले रखना चाहिए।२९२ भिक्षु का एकान्त में भिक्षुणी के साथ बैठना अपराध माना गया है।२९३ बौद्ध भिक्षु के लिए विधान है स्वयं असत्य न बोले अन्य किसी से असत्य न बुलवाये और न किसी को असत्य बोलने की अनुमति दे२९४ बौद्ध भिक्षु सत्यवादी होता है वह न किसी की चुगली करता है न कपटपूर्ण वचन ही बोलता है।२९५ बौद्ध भिक्षु के लिए विधान है कि वह जो सत्य वचन हो हितकारी हो उसे बोलना चाहिए।२९६ जो भिक्षुक जानकर असत्य वचन बोलता है अपमान जनक शब्द प्रयोग करता है वह प्रायश्चित का भागी बनता है।२९ गृहस्थोचित भाषा का प्रयोग भी वर्ण्य है। बौद्ध भिक्षु के लिए परिग्रह रखना भी वर्जित माना गया है।२९८ भिक्षु को स्वर्ण रजत आदि भी ग्रहण नहीं करने चाहिए।२९९ जीवन यापन के लिए जितने वस्त्र पात्र अपेक्षित है उनसे अधिक नहीं रखना चाहिए। यहाँ तक कि भिक्षु के पास जो सामग्री है उसका अधिकारी संघ है। वह उन वस्तुओंका उपयोग कर सकता है पर उनका स्वामी नहीं है। शेष चार जो शील है मद्यपान विकाल भोजन, नृत्यगीत, उच्चशय्यावर्जन आदि का महाव्रत के रूप में उल्लेख नहीं है पर वे श्रमणों के लिए वर्त्य है दस भिक्षुशील और महाव्रतों में समन्वय की दृष्टि से देखा जाय तो बहुत कुछ समानता है तथापि जैन श्रमणों के आचार संहिता में और बौद्ध परम्परा की आचार संहिता में अन्तर भी है। इस प्रकार महाव्रतों का वर्णन पूर्ण हुआ अब ‘सत्तरह प्रकार के संयम' का विवेचन किया जाता है। सत्तरह संयम - जैन वाङ्मय में 'संयम' शब्द स्थान-स्थान पर प्रयुक्त हआ है / जो अनेको का जीवनप्रेमी बना है। क्योंकि तीर्थंकरों, गणधरों, महाराजाओं, राजाओं, श्रेष्टिपुरुषों आदि कईयों ने 'संयम' को जीवन में परिणित बना दिया है। और ऐसी ‘संयमीवान्' आत्माओं को देव, दानव, इन्द्र, नरेन्द्र आदि भी नतमस्तक होते 'संयम' शब्द की व्युत्पत्ति आगमादि ग्रन्थों में इस प्रकार समुल्लिखित है / आचारांग में सर्व सावद्यारम्भ निवृत्तौ'३०० सम्पूर्ण सावद्य आरम्भों से निवृत्त होना ही संयम है। उत्तराध्ययन टीका में सम्यक् पापेभ्य: उपरमणम् / 301 सम्यक् प्रकार से पापों से विरत बनना ही संयम हैं। ____ आचार्य हरिभद्रसूरि 'तत्त्वार्थटीका' में संयम की विशिष्ट व्याख्या करते हुए कहते है कि 'मनोवाक्कायलक्षणास्तेषां निग्रहः प्रवचनोक्त विधिना नियम: एवमेव गन्तव्यं एवं स्थातव्यं एवं चिंतयितव्यमिति एव संयमोभिघीयते। 302 ____ मन वचन काय के योगों का प्रवचन में कही हुई विधि से निरोध करना अर्थात् अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त कर शुभ प्रवृत्तियों में जोड़ना उन्हीं भावो में स्थित बनना तथा वैसा ही चिन्तन करना ही संयम कहलाता है। अर्थात् मन वचन काया के वश न बनकर मन वचन को अपने वश में रखना ही संयम है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII IIIIIIIIA चतुर्थ अध्याय | 299 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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