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________________ अचित्त आदि वस्तु चोरनेवाले को वैसे परिणाम होने के कारण बादर अतिचार लगता है। परिणामों की विचित्रता के कारण सूक्ष्म और बादर भेद पड़ते है। इसी व्रत को सुस्थिर बनाने के लिए आचारांग में भावनाओं का निरूपण किया गया है वह इस प्रकार 1. जो साधु पहले विचार करके मित अवग्रह की याचना करता है वह निर्ग्रन्थ है, किन्तु बिना विचार किये अवग्रह की याचना करने वाला नहीं। बिना विचार किये मितावग्रह की याचना करनेवाला अदत्त ग्रहण करता है अत: विचार करके ही अवग्रह की याचना करे यह प्रथम भावना है। 2. गुरु की आज्ञा लेकर आहारपानी वापरने वाला, निर्ग्रन्थ है, आज्ञा लिए बिना आहार पानी का उपभोग करने वाला नहीं। केवली भगवान कहते हैं जो निर्ग्रन्थ गुरू आज्ञा प्राप्त किये बिना पान भोजनादि का उपभोग करता है, वह अदत्तादान का भोगने वाला कहलाता है यह दूसरी भावना है। 3. निर्ग्रन्थ साधु को क्षेत्र और काल के प्रमाणपूर्वक अवग्रह की याचना करनी चाहिए। जो निर्ग्रन्थ इतने क्षेत्र और इतने काल की मर्यादापूर्वक अवग्रह की याचना ग्रहण नहीं करता वह अदत्त का ग्रहण करता है। यह तृतीय भावना है। 4. निर्ग्रन्थ अवग्रह की आज्ञा करने के पश्चात् बार - बार अवग्रह आज्ञा ग्रहणशील होना चाहिए। क्योंकि केवली भगवान् कहते है जो निर्ग्रन्थ अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण कर लेने पर बार बार अवग्रह की अनुज्ञा नहीं लेता वह अदत्तादान दोष का भागी होता है। यह चौथी भावना है। 5. जो साधु साधर्मिको से भी विचारपूर्वक मर्यादित अवग्रह की याचना करता है वह निर्ग्रन्थ है। बिना विचारे अवग्रह की याचना करने वाला नहीं। केवली भगवान का कथन है कि बिना विचार किये जो साधर्मिकों से अवग्रह की याचना करता है उसे साधर्मिकों का अदत्त ग्रहण करने का दोष लगता है। यह पाँचवी भावना है।२४७ उपरोक्त पाँच भावनाओं के क्रम में तथा समवायांग के क्रम में प्रायः समान पाठ है। समवायांग में इस महाव्रत की भावनाओं का क्रम इस प्रकार है। 1. अवग्रह की बार - बार याचना करना 2. अवग्रह की सीमा जानना 3. स्वयं अवग्रह की बार-बार याचना करना 4. साधर्मिकों के अवग्रह का अनुज्ञा पूर्वक परिभोग करना और 5. सर्वसाधारण आहार पानी का गुरूजनों आदि की अनुज्ञा ग्रहण करके परिभोग करना।४८ आवश्यकचूर्णि में भी प्राय: समानता है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में पाँच भावनाओं का स्वरूप भिन्न रुप में मिलता है। 1. शून्यगारावासपर्वत की गुफा और वृक्ष का कोटर आदि शून्यागार में रहना 2. विमोचितावास-दूसरों द्वारा छोडे हुए मकान आदि में रहना 3. परोपरोधकरण दूसरों को ठहरने से नहीं रोकना 4. भैक्ष शुद्धि आचार शास्त्र में बतलाई हुई विधि के अनुसार भिक्षा लेना 5. सधर्मा विसंवाद यह मेरा है, यह तेरा है इस प्रकार साधर्मिको से विसंवाद न करना ये अदत्तादान विरमणव्रत की पाँच भावनाएँ है।२४९ 4. सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं - सभी प्रकार से मैथुन का त्याग करना चौथा महाव्रत है। जैसा कि आचारांग में पाठ मिलता है। हे भगवान ! मैं चतुर्थ महाव्रत स्वीकार करता हूँ, इसके विषय में समस्त प्रकार के आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIINA चतुर्थ अध्याय | 290)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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