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________________ में वर्णित है उस को प्रमाण देकर पुष्ट किया जा रहा है। अब मैं तृतीय महाव्रत का स्वीकार करता हूँ मैं सभी प्रकार से अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ वह इस प्रकार चाहे गाँव में हो, नगर में हो, अरण्य में हो, स्वल्प हो या बहुल, सूक्ष्म हो या स्थूल, सचेतन हो या अचेतन उसे स्वयं न तो ग्रहण करूँगा न दूसरे से ग्रहण कराऊँगा तथा न अदत्त ग्रहण करने वालों की अनुमोदना करूँगा। यावज्जीव तक तीन करणों से तथा तीन योगों से यह प्रतिज्ञा करता हूँ / मैं पूवकृत् अदत्तादान के पापों का प्रतिक्रमण करता हूँ आत्म निन्दा करता हूँ गर्दा करता हूँ और अदत्तादान पाप का व्युत्सर्ग करता है।२४३ आचार्य हरिभद्रसूरि ने पञ्चवस्तुक में इसी व्रत का प्रतिपादन इस प्रकार किया है। एवं चिअ गामाइसु अप्पबहुविवजणं तइओ४४ गाम नगर आदि में अल्प बहु आदि सभी प्रकार के अदत्तादान का सर्वथा सुप्रणिधान पूर्वक त्याग करना तृतीय मूलगुण है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने धर्मसंग्रहणी में इस व्रत की महानता सिद्ध करने के लिए आक्षेप और परिहारों के साथ प्रस्तुत किया है वह इस प्रकार है। केइ अदत्तादाणं विहिसिट्टा जीविगत्ति मोहातो। वाणिज्जुचियकलं पिव निहोसं चेव मन्नंति // 245 तृतीय महाव्रत में सभी प्रकार से चोरी का त्याग करना चाहिए ऐसा जब जाना तब बुद्धि के विपर्यास में कुछ यह कहने लगे कि जैसे व्यापारियों की व्यापार योग्य माल के लेण देण में कुशलता रूप व्यापार कला निर्दोष है वैसे ही विधि के द्वारा सर्जित यह चौर्यकला भी निर्दोष है। लेकिन यह बात बराबर नहीं है क्योंकि वाणिज्य सम्बंधी उचितकला में चोरी की योग्य कला के समान अप्रशस्त परिणाम नहीं होते है परंतु प्रशस्त परिणाम होते है, क्योंकि प्राय: यह वाणिज्यवृत्ति निर्दोष होती है। यह बात तो व्यवहार से हुई, निश्चय से तो वाणिज्य उचित कला संबधी परिणाम भी प्रतिषेधमात्र ही है। अत: निश्चय नय के मत से उचित या अनुचित वाणिज्य सर्वथा अनर्थकारी ही है। कारण कि सर्वसंग का त्याग ही धर्मरूप है। तो फिर चोरी तो कैसे निर्दोष बन सकती है। क्योंकि अन्यदर्शनकारोंने भी चोरी को त्याज्य बताया है। इस महाव्रत का निर्दोष पालन करने लिए इनके अतिचारों को जानकर परित्याग अत्यावश्यक है। आचार्य हरिभद्र ने पञ्चवस्तुक तथा इसी की टीका में अतिचारों का वर्णन इस प्रकार किया है। तइ अम्मिवि एमेव य दुविहो खलु एस होइ विन्नेओ। तणडगलछारमल्लग अविदिन्नं गिण्हओ पढमो। साहम्मिअन्न साहम्मिआण गिहिगाण कोइमाईहिँ। सच्चित्ताचित्ताई, अवहरओ होइ बिइओ॥२४६ तीसरे महाव्रत में सूक्ष्म और बादर दो प्रकार के अतिचार है। अनुपयोग से घास पत्थर रक्षा....कुंडा आदि अदत्त लेने वाले को सूक्ष्म अतिचार लगते है। साध्वी, चरक आदि अन्यधर्मियों के गृहस्थ की सचित्त या [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / IIIA चतुर्थ अध्याय | 289 1
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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