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________________ मैथुन - विषय सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ। देव सम्बन्धी, मनुष्य संबधी और तिर्यंच - सम्बन्धी मैथुन को स्वयं करूँगा नहीं, अन्य के पास करवाऊँगा नहीं तथा मैथुन सेवन करने वाले की अनुमोदना भी नहीं करूंगा। यावत् अदत्तादान के समान ही२५० आचार्य हरिभद्र ने ‘पञ्चवस्तुक में इसी व्रत का इस प्रकार उल्लेख किया है। दिव्वाइ मेहुणस्स य विवजणं सव्वहा चउत्थो उ२५९ देव मनुष्य आदि सम्बन्धी सभी प्रकार के मैथुन का सर्वथा सुप्रणिधान पूर्वक त्याग करना चोथा मूलगुण है। ___ 'धर्मसंग्रहणी ग्रन्थ में आचार्य हरिभद्रसूरि ने' चतुर्थ मैथुन महाव्रत को विशेष प्रकार के दार्शनिक चिन्तन के रूप में वित्रित करके उस व्रत की उत्तमता प्रदर्शित की है। महाव्रत में मैथुन आसेवन सर्वथा त्याग होता है। ऐसी आप्त पुरुषों की मान्यता है, लेकिन उस मान्यता को स्वीकार नहीं करने वाले कुछ पापी आत्मा मैथुन आसेवन निर्दोष है ऐसा कथन करके मैथुन - आसेवन में गुण है यह प्रदर्शित करते हुए कहते है। केइ भणंति पावा इत्थीणसेवणं न दोसाय। सपरोवगार भावाद दुस्सुगविणिवितितोचेव॥ कुछ पापी कहते हैं, कि स्त्री - आसेवना दोषरूप नहीं है, कारण कि आसेवन करने से स्व और पर दोनों का उपकार होता है। और उत्सुकता की निवृत्ति होती है। ___ दृष्टांत से इसकी पुष्टि करते हुए कहते है कि जिस प्रकार लघुनीति, वडीनीति, कफ, वात्त, पित्त यह शरीर की प्रकृति है, और उसका परित्याग करते है तब ही शुभ ध्यान संभवित है। उसी प्रकार मैथुन सेवन भी शरीर की प्रकृति है और उसके वेदोदय से पीड़ा होती है / अत: उस पीड़ा को कफ आदिके परित्याग के समान अवश्य दूर करनी चाहिए। ऐसा नहीं करने पर दोनों मोहाग्नि से संदीप्त होंगे। अत: मोहाग्नि को शांत करने लिए मैथुनसेवन रूप पानी का सिंचन करना ही होगा। जिससे स्व पर दोनों का उपकार होगा, और आगम में तथा लोकमें स्व-पर उपकार पुण्यजनक का कारण कहा गया है। साथ ही मैथुन संबंधी उत्सुकता चारित्र में हमेशा विघ्न करने वाली है ऐसा जगत में प्रसिद्ध है। यह उत्सुकता स्त्री के आसेवन बिना दूर नहीं हो सकती है तथा इससे आगे बढ़कर सबसे बड़ा लाभ तो यह होता है कि स्त्री सेवन करते हुए स्वयं का एवं स्त्री के बीभत्स रूप का दर्शन होने से वैराग्य प्राप्त होता है / वैराग्य से शुभ ध्यान होता है / उसे प्रस्रवण आदि के समान शरीर की प्रकृतिरूप यह स्त्री आसेवन भी विचार शील पुरुषों को अवश्य करने योग्य है।२५२ लेकिन इनकी ये बाते अज्ञानता की ही सूचक है साथ ही छार पर लीपन के समान निरर्थक है, क्योंकि शास्त्रों में यह बात प्रसिद्ध है कि मोक्ष के अभिलाषी ऐसे बुद्धिशाली पुरुषों को स्त्री आसेवना योग्य नहीं है इसी को - स्पष्ट करते हुए कहते है। नियमा पाणिवहातो तप्पडिसेवातो चेव इत्थीणं। पडिसेवणा णा जुत्ता मोक्खवत्थं उज्जयमतीणं / / 253 मोक्ष के लिए प्रयत्नशील बुद्धिशाली पुरूषों को स्त्री की आसेवना योग्य नहीं है। क्योंकि साध्य के [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII IIIINA चतुर्थ अध्याय | 291)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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