SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अब इस व्रत के परिपूर्ण पालन के लिए अतिचारों का निर्देश एवं उसका परित्याग बताते है। उपासक दशाङ्ग में अतिचारों का उल्लेख इस प्रकार है। “तयाणन्तरं च णं देसावगासियस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियव्वा न समारियव्वा, तं जहाआणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सद्दाणुवाए, रूवाणुवाए, बहिया पोग्गलपक्खे वे।१८० देशावकासिक व्रत वाले श्रावक के पाँच अतिचार जानने योग्य है आचरणे योग्य नहीं है वे इस प्रकार 1. आनयन प्रयोग, 2. प्रेष्यप्रयोग, 3. शब्दानुपात, 4. रूपानुपात, 5. मर्यादित क्षेत्र के बाहर कंकर आदि फेकना। आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थों में इन अतिचारों का विस्तार से विश्लेषण किया है जैसे किवजइ इह आणयणप्पओगपेसप्पओगयं चेव। सद्दाणुरूववायं, तह बहिया पोग्गलक्खेवं // 181 1. आनयन-इस व्रत स्वीकारे हुए को प्रमाण के बाहर जाना निषिद्ध है। ऐसा समझकर परिमित देश के बाहर से सचित्त आदि वस्तु के लाने के लिए सन्देश भेजे जो वस्तु वहाँ से मंगवाई जाती है वह आनयन नाम का प्रथम अतिचार है। 2. प्रेष्यप्रयोग - प्रेष्य अर्थात् दास या सेवक स्वयं का सीमित देश के बाहर जाना उचित न जानकर तु अमुक देश में जाकर मेरी गाय आदि ले आ इस प्रकार देशावगा सिकव्रत वाला अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए प्रयुक्त किया जाता है। वह दूसरा अतिचार है। 3. शब्दानुपात - मर्यादित क्षेत्र के बाहर रहा हुआ कोई व्यक्ति अपने पास आये अत: खांसी आदि से शब्द करना। 4. पुद्गल प्रक्षेप-मर्यादित क्षेत्र के बाहर स्थित कोई व्यक्ति अपने पास आये अत: उस व्यक्ति तरफ कंकर आदि डाले। ये पाँचो अतिचार परित्याज्य है यहाँ यह एक विशिष्टता बताई है कि स्वीकृतव्रत वाला मर्यादित क्षेत्र के बाहर स्वयं जाय अथवा दूसरे को भेजे इसमें विशेष अन्तर नहीं अपितु स्वयं के जाने में यह विशेषता है कि वह ईयासमिति की शुद्धि से जायेगा जो प्राय: दूसरों से सम्भव नहीं है क्योंकि वे इस प्रकार प्राणियों के संरक्षण में सावधान नहीं रह सकते / 182 इन अतिचारों का वर्णन श्रावक प्रज्ञप्ति टीका 183, धर्मबिन्दु टीका 84, तत्त्वार्थ टीका 85 आदि में भी इसी प्रकार मिलता है। 11) पौषधोपवासव्रत - धर्म की पुष्टि करे वह पौषध अथवा पर्व तिथि में अवश्य करने योग्य अनुष्ठान विशेष पौषध कहलाता है पर्वकाल में जो उपवास किया जाय उसको पौषधोपवास कहते है। यह चार प्रकार का बताया गया है। आहारदेह सक्कार बंभवावार पोसहो यऽन्नं। [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII MA चतुर्थ अध्याय 273
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy