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________________ देसे सव्वे य इमं चरमे सामाइयं णियमा॥१८६ आहारपौषध, शरीरसत्कारपौषध, ब्रह्मचर्यपौषध और अव्यापार पौषध इस प्रकार चार प्रकार का तीसरा शिक्षाव्रत है। आहारपौषध आदि चारों के देश से और सर्व से दो भेद है। प्रथम तीन पौषध में सामायिक में विकल्प रहता है लेकिन चतुर्थ अव्यापार पौषध में सामायिक होती है। 1. आहारपौषध - आहार का त्याग करना देश से या सर्वथा वह आहारपौषध 2. शरीरसत्कारपौषध-स्नान, विलेपन, रंगीनवस्त्रों तथा आभूषणों का देश से या सर्वथा त्याग करना / शरीरसत्कार पौष 3. ब्रह्मचर्य पौषध-मैथुन का देश से सर्वथा त्याग करना ब्रह्मचर्य पौषध है। 4. अव्यापारपौषध-पाप व्यापार का देश से या सर्वथा त्याग करना। जो देश से अव्यापार का पौषध करता है वह सामायिक करे अथवा न भी करे लेकिन जो सर्वथा अव्यापार का पौषध करता है वह नियमा सामायिक करता है जो न करे तो उसके फल से वंचित रहता है। . पौषध भी जिनचैत्य, साधु के पास, घरमें या पौषधशाला में मणि, सुवर्ण, अलंकार, विलेपन का त्याग पूर्वक करना चाहिए / पौषध लेने के बाद स्वाध्याय, सूत्र पठन एवं धर्म ध्यान करे। उपासकदशाङ्ग१८७, धर्मबिन्दु९८८ तथा तत्त्वार्थ१८९ सूत्र में इस व्रत के विषय में इतना ही कहा है कि पौषधोपवास पर्व के अर्थ में रूढ़ है तथा उस दिन आहारादि त्याग करना चाहिए इन सूत्रों की टीका में इसका विस्तार से वर्णन नहीं मिलता है जबकि आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति 190, श्रावक धर्म विधि प्रकरण१९१, आदि में विस्तार से वर्णन उपरोक्त प्रकार से किया है। ___ इस व्रत के परिपूर्णपालन के लिए अतिचारों को जानना एवं त्याग करना अत्यावश्यक है उन अतिचारों का वर्णन आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थों में इस प्रकार किया है। अप्पडिदुप्पडिलोहिय पमज्जसेज्जाइ वजई इत्थं समं व अणणुपालन माहाराईसु सव्वेसु॥१९२ / / पौषधोपवासव्रती श्रावक को अप्रत्युपेक्षित, दुष्प्रत्युपेक्षित, शय्या संस्तारक, अप्रमार्जित, दुःप्रमार्जित, शय्या संस्तारक, अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित, उच्चारादिभूमि और अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित उच्चारादि भूमि का परित्याग करना चहिए। 1. शय्या से अभिप्राय चारपाई या पलंग आदि का तथा आसन से अभिप्राय डाभ के आसन व कम्बलवस्त्र आदि का है इनका उपयोग आँखों से देखे बिना अथवा असावधानी से करना। 2. उक्त शय्या, आसन का उपयोग कोमलवस्त्र आदि से पूंजे पोंछे बिना अथवा व्याकुल चित्त से झाडपोछकर करना। 3. उच्चार नाम मल का है आदि शब्द से मूत्र व कफ आदि के विसर्जन के समय भूमि को बिना देखे आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI IIIII चतुर्थ अध्याय 274)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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