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________________ काय दुष्प्रणिधान - जो श्रावक सामायिक के योग्य शुद्ध भूमि को आँखो से न देखकर और कोमल वस्त्र आदि से उसका परिमार्जन न करके स्थान आदि का सेवन करता है। पापकारी कार्यों को करते है। .. 4. स्मृति भ्रंश-जो श्रावक ‘सामायिक को कब करना चाहिए अथवा सामायिक मैं कर चुका हूँ या अभी नहीं की है। इसका प्रमाद से युक्त होकर स्मरण नहीं करता है अथवा भूल जाता है। 5. अनवस्थितकरण-प्रमाद से सामायिक लेने के बाद तुरन्त समाप्त (पार) कर लेते है अथवा जैसे तैसे सामायिक करे। इस प्रकार इन अतिचारों का वर्णन उपासक दशाङ्ग७१, श्रावकधर्मविधिप्रकरण७२, पञ्चवस्तुक.७३, धर्मबिन्दु७४, तत्त्वार्थसूत्र७५, तथा वंदित्तासूत्र७६ मेंभी किया गया है। 10) देशावकाशिक व्रत - दिग्व्रत में यावज्जीव के लिए दशों दिशाओं का परिमाण कर लिया जाता है कि मैं अमुक स्थान से परे अपने भोगोपभोग अथवा आरम्भ आजीविका आदि के लिए नहीं जाऊँगा। अतएव परिमित क्षेत्र के बाहर का उसको किसी भी प्रकार का पाप नहीं लगता। इस व्रत में प्रतिदिन अथवा कुछ दिन के लिए अथवा इतने तक इतने दिन क्षेत्र से बाहर नहीं जाऊँगा इसको देशावकाशिक कहते है। अथवा आज इतने समय तक इस क्षेत्र से बाहर नहीं जाऊँगा। जैसे कि दिसिवयगहियस्स दिसापरिणमाणस्सेह पइदिणं जंतु। परिमाणकरणमेयं, अवरं खलु होइ विण्णेयं / / 177 छठे दिशापरिमाणव्रत में लिये हुए दिशापरिमाण का प्रतिदिन परिमाण करना ही देशवगासिक नाम का दूसरा शिक्षाव्रत है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति में एक दृष्टांत देकर इस व्रत को समझाया है। देसावगासियं नाम सप्पविसनायओऽपमायाओ। आसयसुद्धीइ हियं, पालेयव्वं पयत्तेणं // 178 जिस प्रकार सर्प का दृष्टिविष जो पूर्व में बारह योजन प्रमाण था। उसे विद्यावादी के द्वारा क्रमसे उतारते हुए एक योजन में स्थापित कर दिया जाता है। इसी प्रकार श्रावक दिग्व्रत में गृहीत विशाल देश में बहुत अपराध आदि को कर सकता था। उसे इस देशावकाशिक व्रत में और भी सीमित कर देने के कारण अधिक अपराध से बच जाता है। अथवा दूसरा उदाहरण विष का जिस प्रकार विषैले किसी सर्प आदि के काट लेने पर उसका विष समस्त शरीर में फैल जाता है फिर भी मान्त्रिक अपनी मंत्रशक्ति के द्वारा उसे क्रमश उतारते हुए केवल अंगुलि में स्थापित कर देता है उसी प्रकार देशावकाशिकव्रती दिग्वत में स्वीकृत विशाल देश को कालप्रमाण के आश्रय से प्रतिदिन संक्षिप्त किया करता है। ऐसा करने से प्रमाद रहित होने के कारण चित्त निर्मल होता है। देश का अर्थ है दिव्रत में गृहीत देश का अंश उसमें अवकाश होने से इस व्रत की देशावकाशिक यह सार्थक संज्ञा समझना चाहिए। देशावकाशिक देशे - दिव्रतगृहीतपरिमाण विभागेऽवकाशो देशावकाशः तेन निर्वृत्तं देशावकाशिकं भवति विज्ञेयं / 179 [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII TA चतुर्थ अध्याय | 272]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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