SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ' 5. स्मृति अंतर्धान - नियत सीमा को भूल जाना कहाँ तक या कितना प्रमाण किया था वह प्रमादवश अज्ञानादिवंश याद न रहना इसको स्मृत्यन्तर्धान नामका अतिचार कहते है।१३५ * इन्ही अतिचारों का वर्णन श्रावकधर्मविधि प्रकरण,९३६ श्रावक प्रज्ञप्ति,१३७ धर्मबिन्दु,१३८ तत्त्वार्थसूत्र,१३९ वंदितासूत्र१४० तथा इनकी टीकाओं में इनका विस्तार से वर्णन मिलता है। 2. भोगोपभोग परिमाणव्रत - उपभोग और परिभोग की वस्तुओं का परिमाण किया जाता है। 'उपासक दशाङ्ग,'१४१ में उपभोग और परिभोग की वस्तुओं का अलग अगल एक-एक वस्तुओं का परिमाण बताया गया है क्योंकि वहाँ पर आनंद श्रावक स्वयं अपने लिए वस्तुओं का परिमाण करता है लेकिन श्रावक प्रज्ञप्ति आदि में व्यक्तिगत वर्णन नहीं होने से आचार्य हरिभद्र ने सामान्य से उसका निरूपण किया है जैसे कि उवभोगपरिभोगे बीयं, परिमाणकरणमो नेयं / अणियमियवाविदोसा न भवंति कयम्मि गुणभावे // 142 उपभोग और परिभोग के विषय में जो प्रमाण किया जाता है वह उपभोग -परिभोग प्रमाणव्रत दूसरा अणुव्रत है उनके प्रमाण कर लेने से अनियमित रूप से व्याप्त होने वाले दोष नहीं लगते यह उसका गुण है। उपभोग यानि एकबार भोगे जानेवाला पदार्थ होता है जैसे कि :- भोजन आदि एक बार भोगे जा सकते है। तथा परिभोग बार बार भोगे जाने वाला पदार्थ जैसे कि - मकान, वस्त्र, बर्तन, आदि ये एक ही वस्तु को बार-बार भोगते है। उपभोग और परिभोग भोजन और कर्म की अपेक्षा से दो प्रकार का है। 1. मांस मदिरा आदि का त्याग 2. कर्मादान का त्याग। आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति की टीका में इसका विवेचन करते हुए कहा कि वृद्ध संप्रदाय ऐसा है कि श्रावक को मुख्यतया एषणीय (स्वयं के लिए आरंभ करके न बनाया हुआ) और अचित्त आहार करना चाहिए। अनेषणीय आहार लेना पड़े तो सचित्त का त्याग करना चाहिए सचित्त का भी सर्वथा त्याग न हो सके तो अनंतकाय, बहुबीज, चार महाविगई, रात्रिभोजन द्विदल आदि का सर्वथा त्याग करना चाहिए। इसी प्रकार वस्त्र आदि परिभोग में भी अल्पमूल्य और परिमित वस्त्रों को पहनना चाहिए। शासन प्रभावना में सुंदर मूल्यवान वस्त्र पहनने चहिए। कर्म संबंधि वृद्धसंप्रदाय - श्रावक यदि व्यापार के बिना आजीविका न चला सके तो अतिशय पाप वाला व्यवहार का त्याग करना चहिए।१४३ ऐसा ही वर्णन पञ्चाशक की टीका,१४४ श्रावक धर्मविधि प्रकरण वृत्ति१४५, धर्म बिन्दु४६ में है। अतिचारों से रहित उसका पालन करना चाहिए अतः अब अतिचारों का वर्णन करते है। सचित्ताहारं खल बद्धं च वजए सम्म। अप्पोलिय - दुप्पोलिय - तुच्छोसहि भक्खणं चेव // 147 आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIA चतुर्थ अध्याय | 267 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy