________________ सचित्त आहार, सचित्त प्रतिबद्धाहार, अपक्कभक्षण, दुष्पक्व भक्षण और तुच्छ औषधि भक्षण ये भोजन की अपेक्षा से पाँच अतिचार है। उपभोग परिभोग परिमाणवत के विषय में कर्म विषयक १५अतिचार कहे गये है। 1. अंगारकर्म 2. वनकर्म 3. शकटकर्म 4. भाटनकर्म 5. स्फोटन कर्म 6. दन्तवाणिज्य 7. लाक्षावाणिज्य 8. रस वाणिज्य 9. केशवाणिज्य 10. विषवाणिज्य 11. यन्त्रपीडन कर्म 12. निल्छन कर्म 13. दवदान 14. सरद्रह तडागशोषण 15. असतीपोषण।१४८ इस प्रकार भोग परिभोग वाले व्रती को इन सभी अतिचारों का त्याग करना चाहिए है। इस प्रकार . अतिचारों का वर्णन पञ्चाशक सूत्र,१४९ श्रावक धर्मविधिप्रकरण,१५० धर्मबिन्दु,१५१ तत्त्वार्थसूत्र 52 में भी मिलता है तथा इन सभी की टीकाओं में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है। (3) अनर्थदण्ड विरमणव्रत - इस अनर्थदण्ड का स्वरूप आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थों में इस प्रकार निरूपित किया है। तहणत्थदंडविरई अण्णं स चउव्विहो अवज्झाणे। पमयायरिये हिंसप्पयणपावोवएसेय // 153 तृतीय गुणव्रत अनर्थदंड विरति है अनर्थदंड के अपध्यान, प्रमादाचरण, हिंसाप्रदान और पापोपदेश ये चार भेद है। __ प्रयोजन के बिना जो जीवों को पीडा पहुँचायी जाती है उसका नाम अनर्थदण्ड है। ऐसे अनर्थदण्ड का . परित्याग करना अनर्थदण्डव्रत है यह चार प्रकार का है। 1. अपध्यान - आर्त रौद्र स्वरूप दुष्टचिन्तन का नाम अपध्यान है अथवा निरर्थक विचार करना अपध्यान कहलाता है जैसे कि कइया वच्चति सत्थो। किं भंडं कत्थ ? केन्तिया भूमी ? को कयविक्कयकालो ? निव्विसये किं कहिं केण ? सार्थ कहा जा रहा ? कहा कौनसा करियाणा है ? भूमी कितनी है ? बेचने और खरीदने का समय कौनसा है ? किसने कहाँ पर क्या किया ? इस प्रकार निरर्थक विचारना अपध्यान है। 2. प्रमादाचरण - मद्य, विषय, कषाय, निन्दा और विकथा ये 5 प्रकार प्रमाद के है। प्रमाद के वश में आकर जो कार्य किया जाता है / वह प्रमादाचरण कहलाता है। जैसे-तेल, घी आदि के बर्तन खुले रखना। रत्नकरण्डक में इसके लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि पृथिवी, जल अग्नि और वायु का निरर्थक आरम्भ करना तथा वनस्पतियों को छेदना इत्यादि कार्य बिना प्रयोजन करना। निरर्थक हाथ पाँव आदि का व्यापार करना तथा हिंसक जीवों का पालन करना इत्यादि कार्य भी प्रमादाचरण है। 3. हिंसाप्रदान - जिससे हिंसा होती है ऐसे शस्त्र, अग्नि, हल, विष आदि वस्तु दूसरों को देना। | आचार्य हरिभटसृरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII चतुर्थ अध्याय 2680