________________ प्रथम गुणव्रत में दिग्परिमाणविरमणव्रत है / वह इस प्रकार है - 1. दिग्परिमाण विरमणव्रत - दिशाओं का प्रमाण करना। उड्ढमहे तिरियं पि य दिसासु परिमाणकरणमिह पढमं। भणियं गुणव्वयं खलु सावगधम्मम्मि वीरेण // ऊपर की, नीचे की और तिरछा इन दिशाओं में जो प्रमाण किया जाता है उसे श्रावकं धर्म में वीर परमात्मा के द्वारा प्रथम दिग्वत नामक गुणव्रत कहा गया है। ‘पञ्चाशकसूत्र' में तथा श्राद्धधर्मविधि' प्रकरण में कुछ अलगरूप से बताया है वहाँ समय की मर्यादा . का उल्लेख किया है। उड्डाहो तिरियदिसिं, चाउम्मासाइकालमाणेण। गमणपरिमाणकरणं, गुणव्वयं होइ विन्नेयं // 133 चार महिना आदि समय तक ऊपर नीचे और तिर्छा इतनी मर्यादा से अधिक नहीं जाना / इस प्रकार . गति का परिमाण करना दिशापरिमाणरूप गुणव्रत है। जो अणुव्रतों को लाभ करते है गुण करते है उससे उन्हे गुणव्रत कहे जाते है। . इस व्रत का निरतिचार परिपालन के लिए उसके अतिचारों को जानकर परित्याग करना चाहिए वे इस प्रकार है। वजइ उड्ढाइक्कममाणयणप्पेसणोभयविसुद्धं / तह चेव खेत्तवुडिढं कहिंचि सइअंतरद्धं च / / 134 श्रावक छठे व्रत में त्याग किये हुए क्षेत्रमें दूसरों के द्वारा किसी वस्तु को प्रेषित करने का और मंगवाने का त्याग करे ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम, अधोदिशाप्रमाणातिक्रम और तिर्यदिशा प्रमाणातिक्रम इन अतिचारों एवं क्षेत्रवृद्धि तथा स्मृति अंतर्धान इन दो अतिचारों का त्याग करे। 1. ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम - ऊर्ध्वदिशा में जितना प्रमाण किया है उसको बिना बढ़ाये ही कार्यवश उससे परे गमन करना प्रथम अतिचार / 2. अधोदिशाप्रमाणातिक्रम - इसी तरह अधोदिशा में जितना प्रमाण किया है उससे परे गमन करना अधोव्यतिक्रम अतिचार है। 3. तिर्यग् व्यतिक्रम - पूर्वादिक आठ दिशाओं में से किसी भी दिशा में नियत सीमा से आगे गमन करना तिर्यग्व्यतिक्रम अतिचार है। 4. क्षेत्रवृद्धि - पहले जितना प्रमाण किया है उसको फिर रागवश बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि नाम का अतिचार है / यह अतिचार दो प्रकार से हो सकता है। एक तो एक दिशा के नियत प्रमाण को घटाकर दूसरी तरफ बढ़ा लेने से, दूसरे किसी के भी प्रमाण को बिना घटाये ही इच्छित दिशा के प्रमाण को बढ़ा लेने से। [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व II VIIIA चतुर्थ अध्याय | 266 )