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________________ काम, अभिलाषा, गृद्धि और मूर्छा ये सभी समानार्थक है ऐसा कहा है। इस व्रत का परिपूर्णपालन के लिए अतिचारों को प्रयत्न पूर्वक जानकर उनका परित्याग करना चाहिए। 'उपासकदशाङ्ग' 124 आदि में भी इनके अतिचारों का वर्णन मिलता है। आचार्य हरिभद्र ने भी अपने ग्रन्थों में इन अतिचारों का उल्लेख किया है वह इस प्रकार - खेत्ताइहिरण्णाईधणाइदुपयाइकुप्पमाणकमे / जोयणपयाणबंधणकारण भावेहि नो कुणइ / / 125 पाँचवा अणुव्रत लेने वाला श्रावक योजन, प्रदान, बंधन कारण और भाव से अनुक्रमे क्षेत्र वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद और कुप्य पाँच परिणामों का अतिक्रम नहीं करता है। 1. क्षेत्र-वास्तु एक क्षेत्र या वास्तु को दूसरे क्षेत्र के वास्तु के साथ जोड़कर उसके परिमाण का उल्लंघन करने से अतिचार लगते है। 2. हिरण्य सुवर्णातिक्रम-हिरण्य और चांदी परिमाण से अधिक चाँदी और सुवर्ण दूसरों को देकर परिमाण का उल्लंघन करने से अतिचार लगते है। 3. धन धान्य परिमाणातिक्रम - चावल, धन, धान्य के परिमाण का उल्लंघन करने से अतिचार लगते 4. द्विपद-चतुष्पद परिमाणातिक्रम द्विपद तथा चतुष्पद आदि के परिमाण का उल्लंघन करने से अतिचार लगते है। 5. कुप्य प्रमाणातिक्रम - कुप्य अर्थात् घरमें उपयोगी शय्या, थाली, वाटका आदि सामग्री के परिमाण का भाव से पर्यायांतर करके उल्लंघन करने से अतिचार लगते है।१२६ .. यहाँ व्रत के भय से ऐसा करता है / अत: व्रत सापेक्ष होने से व्रत का भंग नहीं है, लेकिन परमार्थ से तो परिमाण अधिक होना व्रतभंग है। ___‘इन अतिचारों का वर्णन श्रावक प्रज्ञप्ति'१२७ पञ्चाशक सूत्र,१२८ धर्मबिन्दु,१२९ तत्त्वार्थसूत्र 30 में भी मिलता है तथा सूत्र के गाथा की टीका में इनका विशेष विवेचन भी मिलता है। इस प्रकार पाँच अणुव्रतों का विवेचन पूर्ण हुआ अब श्रावक के तीन गुणव्रत का क्या स्वरूप है उसका निर्देश करते है। ‘उपासक दशाङ्ग' सूत्र में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत न कहकर सातों का शिक्षाव्रत से ही उल्लेख किया, तीन गुणव्रत का अलग भेद नहीं किया। लेकिन आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थों में तीन गुणव्रत का अलग से उल्लेख किया है / वह इस प्रकार - . "उक्तान्यणुव्रतानि सांप्रतमेवाणुव्रतानां परिपालनाय भावनाभूतानि गुणव्रतान्यभिधीयन्ते। तानि पुनस्त्रीणि भवन्ति तद्यथा दिग्वतमुपभोग परिभोग परिमाणं अनर्थदण्डपरिवर्जनमिति / "131 दिग्वतभोगोपभोगमानार्थदण्डविरतयस्त्रीणि गुणव्रतानीति।१३२ [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIL चतुर्थ अध्याय | 265
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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