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________________ 3. अनंग क्रीडा-काम सेवन करने के जो अङ्ग है, उनके सिवाय अन्य उरू, स्तन आदि अंगो में अथवा कृत्रिम अंगो के द्वारा जो क्रीडा करना, तथा हस्तक्रिया आदि करना अनङ्गक्रीडा नामका अतिचार है। 4. परविवाहकरण-अपनी सन्तान को छोड़कर कन्याविषयक फल की इच्छा से अथवा स्नेह के वश अन्य की सन्तान के विवाह करने का नाम परविवाह है। 5. कामतीव्राभिनिवेश - अपनी स्त्री आदि में अत्यन्त कामासक्ति रखना और उसके लिए कामवर्धक प्रयोग करना आदि तीव्र कामाभिनिवेश नाम का अतिचार है।१०९ इन अतिचारों का विशेष स्पष्ट वर्णन 'तत्त्वार्थाधिगम११० की टीका', योगशास्त्रका स्वोपज्ञ विवरण१११ एवं 'सागरधर्मामृत' 112 की स्वो. टीका में मिलता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने यह भी कहा कि इस अणुव्रत की सुरक्षा के लिए रागादिरूप विकार के साथ पर युवती को देखना उसके साथ सम्भाषण करना आदि मोह को उत्पन्न करनेवाला है अत: उसका भी परित्याग करना चाहिए, क्योंकि ये ऐसे कामबाण है जो संयमी के चारित्ररूप प्राणों को नष्ट कर दिया करते है। . इन अतिचारों का वर्णन 'श्रावकप्रज्ञप्ति'११३ श्रावकधर्मविधि प्रकरण,११४ वंदितासूत्र,११५ तत्त्वार्थसूत्र,११६ धर्मबिन्दुप्रकरण११७ में भी मिलता लेकिन इतनी अवश्य भिन्नता है कि 'तत्त्वार्थसूत्र' एवं धर्मबिन्दु प्रकरण में इन अतिचारों के क्रम का व्यत्य है। 5. स्थूल परिग्रहणपरिमाण विरमणव्रत - चेतनायुक्त मनुष्य, स्त्री, दास, दासी, द्विपद हाथी, घोडा चतुष्पद तथा चेतन रहित सुवर्ण, चाँदी आदि के विषय में इच्छा का प्रमाण करता है कि मैं अमुक वस्तु इतने प्रमाण में ग्रहण करूँगा, इससे अधिक ग्रहण नहीं करूँगा। सचित्ताचित्तेसु इच्छापरिमाणमो य पंचमयं / भणियं अणुव्वयं खलु, समासओ शंतनाणीहि / 118 यह परिग्रह परिमाणव्रत नौ प्रकार से होता है तथा धनादि सभी के पास समान न होने से यह व्रत अनेक प्रकार का होता है ऐसा बताते हुए आचार्य हरिभद्र पञ्चाशक में कहते है कि इच्छापरिमाण खलु असयारंभविणिवित्तिसंजणगं / खेत्ताइवत्थुविसयं चित्तादविरोहओ चितं // 119 धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, रूप्य, सुवर्ण, कुप्य, द्विपद और चतुष्पद यह नव प्रकार का परिग्रह का परिमाण करना ही पाँचवा अणुव्रत है इस व्रत से अशुभ आरंभो की निवृत्ति होती है। और यह व्रत, चित्त, वित्त, देश, वंश आदि के अनुरूप लेने से अनेक प्रकार का है। 'उपासकदशाङ्गसूत्र' 120 'श्रावक धर्मविधि प्रकरण'१२१ वंदितासूत्र 122 तथा तत्त्वार्थसूत्र'१२३ में भी इस व्रत का स्वरूप बताया है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में आचार्य उमास्वाति ने मूर्छा को परिग्रह कहा है / लेकिन भाग्य में इच्छा, प्रार्थना, | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII MINIA चतुर्थ अध्याय - 264)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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