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________________ 4. स्थूल स्वदारसंतोष विरमणव्रत - स्वदार संतोष का परिमाण ही चौथा व्रत है 'उपासक दशाङ्ग सूत्र'१०२ में इस व्रत का वर्णन मिलता है। उसमें 'स्वदारसंतोष परिमाण' का ही वर्णन मिलता है। जबकि आचार्य हरिभद्र ने पञ्चाशक आदि ग्रन्थों में कुछ भिन्न विवेचन किया है / उन्होंने परस्त्री का त्याग स्वस्त्रीसंतोष दोनों बाते बताई है वह इस प्रकार है। परदारस्स य विरई ओरालविउव्वभेयओ दुविहं / एयमिह मुणेयव्वं, सदारसंतोस मो इत्थ // 103 परस्त्री का परित्याग और स्वस्त्रीसंतोष चौथा अणुव्रत है / इसमें परस्त्री औदारिक और वैक्रिय के भेद से दो प्रकार की है। ___परस्त्री के परित्याग से यहाँ अन्य स्त्री के परित्याग का अभिप्राय है, वेश्याके परित्याग का नहीं। परन्तु स्वस्त्री संतोष से यहाँ वेश्याके परित्याग का अभिप्राय तो रहा ही है, साथ ही अपनी पत्नी से भिन्न अन्य सभी स्त्रियों के परित्याग का रहा है औदारिक और वैक्रियिक के भेद से परस्त्री के यहाँ दो भेद निर्दिष्ट किये गये है। जो औदारिक शरीरवाली स्त्री औदारिक कहलाती है स्नायु मांस हाडका आदि का बना हुआ शरीर औदारिक मनुष्यजाति की स्त्री और पशुजाति की स्त्री औदारिक परस्त्री है और वैक्रिय लब्धि की विकुर्वणा करके बनाया हुआ शरीर वैक्रिय है देवीओ और विद्याधरीओं वैक्रिय परस्त्री है। परस्त्री का त्याग करनेवाला ब्रह्मचर्याणुव्रती इन दोनों प्रकार की परस्त्रियों का त्यागी होता है।१०४ आचार्य हरिभद्रसूरिने ऐसा वर्णन ‘पञ्चाशकसूत्र'१०५ 'श्रावक प्रज्ञप्ति'१०६ आदि में भी किया है। इस व्रत का परिपूर्ण पालन करने लिए उनके अतिचारों को जानना एवं साथ ही उसका परित्याग अत्यावश्यक है वे अतिचार ‘उपासक दशाङ्ग'१०७ में जो बताये है उन्ही का अनुसरण करते हुए आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों में समुल्लिखित किये है वे इस प्रकार है - वज्जइ इत्तरिअपरिग्गाहियागमणं अणंगकीडं च। परविवाहक्करणं कामे तिव्वाभिलासं च // 108 श्रावक चौथे व्रत में इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीडा, परविवाहकरण, तीव्रकामाभिलाष इन पाँच अतिचारों का परित्याग करे। 1. इत्वरपरिगृहीतागमन - भाडा देकर कुछ काल के लिए ग्रहण की गई वेश्या को अपने अधीन करके उसके साथ मैथुन सेवन करना। 2. अपरिगृहीतागमन - जिसने दूसरों के पास से मूल्य नहीं लिया हो वैसी वेश्या तथा अनाथ कुलांगना, त्यक्ता, कुमारिका आदि अपरिगृहीता मानी जाती है ये दूसरे के द्वारा ग्रहण नहीं की गयी है। इसलिए भले ही उसे परस्त्री न समझा जाये पर वस्तुत: वह परस्त्री ही है। अत: इनके साथ विषय सेवन से अतिचार लगते है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII चतुर्थ अध्याय | 263
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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