________________ श्रावक को तृतीय अणुव्रत में स्तेनाहृत, तस्करप्रयोग, विरुद्ध राज्यातिक्रम, कूटतुलकूडमाण और तत्प्रतिरूप व्यवहार इन पाँच अतिचारों का त्याग करना चाहिए। 1. स्तेनाहत स्तेन अर्थात् चोर / चोरों द्वारा चोरी करके लायी गई केसर व कस्तूरी आदि मूल्यवान् वस्तुओं को लोभ के वश से ग्रहण करना। यह प्रथम अतिचार है। ‘पञ्चाशकसूत्र' की टीका में सात प्रकार के चोर बताये है। चौरश्चौरापको मंत्री, भेदज्ञ : काणकक्रयी। अन्नदः स्थानदश्चैव चौरः सप्तविधः स्मृतः॥ चोरी करने वाला 2 दूसरों के पास करानेवाला 3 चोरी की सलाह सूचना आदि द्वारा चोरी की मंत्रणा करनेवाला (4) चोरी करके लायी हुई वस्तु खरीदने वाला (5) चोर को भोजन देने वाला (6) चोर को स्थान देने वाला (7) चोर के भेद को जाननेवाला। 2. तस्कर प्रयोग - तस्कर यानि चोर / चोरों को चोरी के कार्य में प्रेरित करते हुए ‘तुम इस प्रकार से चोरी करो' इत्यादि रूप से अनुज्ञा करना इसे तस्कर प्रयोग कहते है। 3. विरूद्धराज्यातिक्रम - दो राजाओं के राज्य को विरुद्ध राज्य कहा जाता है उनका उल्लंघन करके चोरी से टैक्स आदि को बचाकर एक राज्य से दूसरे राज्य में वस्तु का ले जाना व वहाँ से अपने यहाँ ले आना यह विरुद्ध राज्यातिक्रम नाम का तीसरा अतिचार है। ____4. कूटतुलाकूटमान - तुला का अर्थ तराजू या काँटा तथा मानका अर्थ मापने तौलने के प्रस्थ बॉट आदि होते है इनको देने और लेने के लिए अधिक प्रमाण में रखना। 5. प्रतिरूपक व्यवहार - प्रतिरूप का अर्थ सदृश समान होता है अधिक मूल्यवाली विक्रय वस्तु में उसी के जैसी अल्पमूल्यवाली वस्तु को मिलाकर बेचना। इसे प्रतिरूपक व्यवहार कहा जाता है। ‘पञ्चाशकसूत्र' की टीका में विशेषरूप से यह बताया है कि स्तेनाहृत आदि पाँचो स्पष्ट रूप से चोरीरूप ही है लेकिन सहसा आदि से या अतिक्रम आदि से हो जाय तो अतिचार गिने जाते है ये अतिचार व्यापारी को ही होते है१६ ऐसा नहीं लेकिन राजा और राजसेवकों को भी होते है।९६ ___ आचार्य हरिभद्र ने 'श्रावक प्रज्ञप्ति' टीका में यह भी बताया है कि अचौर्याणुव्रती को उपर्युक्त अतिचारों का तो त्याग करना ही, साथ में और कैसा व्यवहार करना चाहिए कि यदि किसी भी प्रयोजनवश किसी को किसी के रूपया वैसे लेना पड़े तो उसे उचित ब्याज के साथ लेना चाहिए। यदि कभी सुपारी आदि क्रय-विक्रय में विशेष लाभ हुआ हो तो उसे अभिमान के साथ ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि कभी किसी व्यक्ति की वस्तु गिर गयी हो तो उसे जानकर ग्रहण न करना। इस प्रकार यह तृतीय अणुव्रत पूर्ण हुआ इसके अतिचारों का वर्णन श्रावक धर्मविधिप्रकरण, धर्मबिन्दु, तत्त्वार्थ टीका,१०° वंदितासूत्र०९ आदि में मिलते है। अब चौथा अणुव्रत का निर्देश किया जाता है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA चतुर्थ अध्याय 262 )