________________ अहितकर कार्यों में प्रवृत्त करना, अथवा प्रमाद वश ऐसा वचन बोलना जिससे दूसरों को कष्ट हो। 5. कूटलेखकर - झूठा जमा खर्च करना, दूसरे की मुहर या हस्ताक्षर बनाकर असमीचीन प्रवृत्ति करना। इन अतिचारों से व्रत मलिन होता है अत: इनका परित्याग करना चाहिए। इन अतिचारों का वर्णन 'पञ्चाशकसूत्र'४ धर्मबिन्दु,५ तत्त्वार्थसूत्र, वंदितासूत्र में भी मिलता है। 3. स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत - चोरी करने के अभिप्राय से जिनका वह द्रव्य है उनके बिना दिये ही उसका परिग्रहण कर लेना उसको अपना लेना अथवा ले लेना चोरी है तथा उससे विरत बनना स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत कहलाता है। "उपासक दशाङ्ग'८८ में तृतीय व्रत का विवरण मिलता है लेकिन वहा सामान्यरूप से कथन है टीका में भी विशेष विस्तार नहीं किया गया है जबकि आचार्य हरिभद्रसूरि ने टीका में उसका विशेष विवरण किया है। थूलमदत्तदाणे विरई तच्चं दुहा तं भणियं। सचित्ताचित्तगयं, समासओ वीयरागेहिं॥९ लोकव्यवहार में जिसे चोरी गिनी जाती है ऐसी वस्तु का त्याग करना स्थूल अदत्तादान है सचित्त और सचित्त वस्तु से सम्बद्ध होने के कारण वीतराग परमात्माने उसे दो प्रकार का कहा है। टीका में उसका विशेष स्वरूप इस प्रकार है - स्वामी के द्वारा नहीं दी गई वस्तु को ग्रहण करना अदत्तादान है। वह सूक्ष्म और स्थूल भेद से दो प्रकार का है। उनमें जिस स्थूल वस्तु के ग्रहण करने पर चोरी का आरोप शक्य है उसे दूषित चित्तवृत्ति से ग्रहण करना, स्थूल अदत्तादान कहलाता है। इसके विपरीत जल मिट्टी आदि ग्रहण करने पर चोरी नहीं समझा जाता है उसका नाम सूक्ष्म अदत्तादान कहलाता है / श्रावक सूक्ष्म अदत्तादान का परित्याग नहीं कर सकता है तथा जो स्थूल अदत्तादान है वह भी सचित्त और अचित्त के भेद से दो प्रकार का है। किसी विशिष्ट क्षेत्र में जिस किसी भी प्रकार रखे गये दासी दास एवं हाथी, घोड़े आदि द्विपद प्राणियों का स्वामी की आज्ञा के बिना चोरी के विचार से ग्रहण करना सचित्त अदत्तादान है। वस्त्र, सोना, चाँदी आदि अचित्त वस्तुओं को चोरी के अभिप्राय से ग्रहण करना इसे अचित्त अदत्तादान कहा जाता है। अदत्तादान का सामान्य कथन ‘पञ्चाशक' 91 धर्मबिन्दु'९२ 'तत्त्वार्थसूत्र'९३ 'वंदितासूत्र' 94 में भी मिलता प्रकृत व्रत का परिपूर्ण परिपालन करने हेतु उनके अतिचारों को जानकर उनको प्रयत्न पूर्वक परित्याग करना चाहिए। “उपासक दशाङ्ग' में अतिचारों का जैसा वर्णन मिलता है वैसा ही आचार्य हरिभद्र ने ‘पञ्चाशक' आदि ग्रन्थों में किया है जैसे कि - वज्जइ इह तेणाहड - तक्करजोगं विरूद्धरजं च। कूडतुलकूडमाणं तप्पडिरूवं च ववहारं च // 95 [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व V A चतुर्थ अध्याय 261)