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________________ उनका पूर्ण रूप से त्याग करना शक्य नहीं है वह तो स्थूल रूप में ही उनका परित्याग कर सकता है।६२ पश्चाशक टीका' में 'अणु' शब्द का अभिप्राय इस प्रकार मिलता है ‘अणु अर्थात् छोटा जो व्रत छोटे होते है वे अणुव्रत कहलाते है। महाव्रतों की अपेक्षा अणुव्रत छोटे होते है, अथवा साधु की अपेक्षा श्रावक छोटा है अथवा अणु' यानि पश्चात् दिये जाते है अत: वे अणुव्रत है क्योंकि धर्म ग्रहण करने वालों को प्रथम महाव्रतों को समझना ऐसी शास्त्रोक्त विधि है कहा भी है कि "जईधम्मस्स समत्थे जुजति तद्देसणं पि साहणं।" साधु धर्म को स्वीकार करने में असमर्थ आत्मा को साधु श्रावकधर्म की देशना दे वह योग्य है। इस प्रकार महाव्रतों के बाद श्रावक के व्रत दिये जाने के कारण अणुव्रत है।६३ आचार्य उमास्वाति म.सा. ने तत्त्वार्थसूत्र में हरिभद्रसूरि की व्याख्या को ही प्रस्तुत की है। 'देशसर्वतोऽणु महती।' हिंसा, झूठ, चोरी आदि जो पाप है उनका एक देश से त्याग अणुव्रत और सर्वथा त्याग महाव्रत कहलाता है। उपासङ्गदशाङ्ग आदि की टीका में अणु' की उपरोक्त व्याख्या नहीं मिलती है लेकिन उत्तरवर्ती आचार्य के एवं हरिभद्रसूरि आदि के शास्त्रों में यह व्याख्या स्पष्टरूप से उल्लिखित है। अणुव्रत को जानकर जीवन में अपनानेवाला आंगारी श्रावक या गृहस्थ कहलाता है। ऐसा तत्त्वार्थ सूत्र एवं तत्त्वार्थ की टीका में कहा है। . - अणुव्रतोऽगारी।६४. “एवमेतानि पंचाप्यणूनि स्वल्पविषयानि न यथोक्तसमस्तविषयाणि, व्रतानि यस्य सो अणुव्रतोऽगारी भवतीति।'६५ इस प्रकार जो थोडे प्रमाणवाले व्रतों को धारण करनेवाला है उस श्रावक को अगारीव्रती समझना चाहिए क्योंकि वह सर्वथा पालन नहीं कर सकता। - अब पांच अणुव्रत, तीन-गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का स्वरुप एवं अतिचारों का वर्णन इस प्रकार आगमों एवं शास्त्रों में मिलता है। पाँच अणुव्रत - स्थानांग सूत्र में पाँच अणुव्रतों का पाठ हमें इस प्रकर मिलता है। “पंचाणुव्वया पण्णता-तं जहां थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ अदिन्नादाणओ वेरमणं, सदारसंतोसे इच्छापरिणामे।'६६ पाँच अणुव्रत होते है यह इस प्रकार - स्थूल प्राणातिपात विरमणव्रत स्थूल मृषावाद विरमणव्रत, स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत, स्वादारसंतोष और इच्छा परिणाम। _____ आचार्य हरिभद्र ने अपने द्वारा रचित धर्मबिन्दु, श्रावक प्रज्ञप्ति , पंचाशकसूत्र आदि में पाँचों व्रतों का एक साथ उल्लेख करके तत्पश्चात् उसका पृथक् - पृथक् रूप से विश्लेषण किया है। जैसे कि | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIA चतुर्थ अध्याय | 255)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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