________________ गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। ‘पंचाशक' में आचार्य हरिभद्र सूरि ने बारह व्रतों को दो भेदों में विभक्त किये मूलगुण और उत्तरगुण जैसेपंच उ अणुव्वयाई, थूलगपाणवहविरमणाईणि। उत्तरगुणा तु अन्ने दिसिव्वयाई इमेंसिं तु॥५८ स्थूलप्राणवध विरमण आदि पाँच अणुव्रत हैं उन अणुव्रतों के दूसरे दिग्विरति आदि सात उत्तर गुण है। इस प्रकार श्रावक के बारह व्रतों के बारे में आगम तथा हरिभद्रसूरि के चिन्तन में कुछ भेद होता है 'उपासक-दशाङ्ग' तथा 'ज्ञाताधर्मकथा' सूत्र में “शैलक राजा ने नेमिनाथ भगवान के शिष्य के पास पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावकधर्म स्वीकार किया' ऐसा पाठ मिलता है। इससे यह ज्ञात होता है कि वहाँ पाँच अणुव्रत और दिग्विरति आदि सात उत्तरव्रतों का उल्लेख केवल शिक्षापद के नाम से किया गया है जबकि ‘श्रावकप्रज्ञप्ति' आदि में आचार्य हरिभद्रने पाँच अणुव्रत, तथा दिग्विरति उपभोग, परिभोगपरिमाण और अनर्थदण्डविरमण तीन का उल्लेख गुणव्रत के नाम से तथा शेष सामायिक आदि चार का उल्लेख शिक्षापद के नाम से किया गया है तथा “पञ्चाशकसूत्र' में आचार्य हरिभद्रसूरि ने ही स्थूलप्राणवधविरमण आदि को पाँच अणुव्रत कहे और शेष को उत्तरगुण कहे है। उसी को पंचाशक टीका के आचार्य अभयदेवसूरि ने टीका में कहा कि 'पाँच अणुव्रत श्रावकधर्मरूप वृक्षके मूल के समान होने से मूलगुण कहे जाते है तथा दूसरे सात व्रत अणुव्रतों की पुष्टि वृद्धि करते है अत: वे श्रावकधर्म रूप महान् वृक्ष के शाखा प्रशाखा समान होने से उत्तर गुण कहलाते है।५९ “तत्त्वार्थसूत्र” में उमास्वाति म.सा. ने भी दिग्विरति आदि को उत्तरगुण में ही स्वीकारा है / 60 “पाँच अणुव्रत ही क्यों ? प्रत्येक तीर्थंकर के शासन में पाँच अणुव्रत होते है। जैसे प्रथम और अंतिम जिनेश्वर के शासन में पाँच महाव्रत होते है, और बावीस तीर्थंकर के शासन में चार महाव्रत होते है यह भेद महाव्रतों में होता है, लेकिन पाँच अणुव्रत में वैसा भेद नहीं पाया जाता है क्योंकि ज्ञातधर्म कथाङ्ग' सूत्र में यह दृष्टांत मिलता है कि नेमिनाथ भगवान के शिष्य थावच्चापुत्र अणगार को शैलकराजा अपनी दीक्षा की असमर्थता प्रगट करते हुए कहते है “हे देवानुप्रिय ! जैसे आपके पास अनेक उग्रादि कुलों के पुरुषों ने धन-वैभव त्याग कर दीक्षा ग्रहण की है वैसा करने में मैं तो समर्थ नहीं हुँ / किन्तु आपसे पाँच अणुव्रतादि को धारण कर श्रमणोपासक बनना चाहता हूँ। ऐसा पाठ मिलता है।६१ "तओणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइय जाव समणोवासए" इससे यह निश्चित होता है अणुव्रतों में भेद किसी भी तीर्थंकर के शासन में नहीं होता है। ___इन पाँच अणुव्रतों में जो ‘अणु विशेषण दिया गया है वह सर्वविरति महाव्रतों की अपेक्षा से दिया गया है जिसका अभिप्राय यह है कि महाव्रतों में जिस प्रकार प्राणिवधादिरूप पाँच पापों का त्याग सर्वथा मन-वचन काया व कृत-कारित-अनुमोदित से किया जाता है उसी प्रकार प्रकृत अणुव्रतों में उनका सर्वथा परित्याग नहीं किया जाता किन्तु देश से ही उनका त्याग किया जाता है कारण कि आरम्भादि गृहकार्यों को करते हुए गृहस्थ से | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI A चतुर्थ अध्याय | 2540