________________ 'उपासक दशाङ्ग' में मिलता है / जिसमें क्रमश:, आनंद श्रावक आदि उपासकों का जीवनवृत्त वर्णित है। जिसमें परमात्मा ने स्वयं आनंद श्रावक को व्रतों का स्वरुप समझाया एवं व्रत ग्रहण करवाया जो कि वर्तमान में पंचम गणधर श्रीमद् सुधर्मास्वामी प्रणीत" आगम में विद्यमान है जिसमें इस प्रकार बारह व्रत का निरूपण है।। अहंणं देवाणुप्पियाणं अन्तिए पञ्चाणुव्वइयं सत्त सिक्खा वइयंदुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामि।९ तथा ज्ञाता धर्मकथा में इसी प्रकार बारह व्रत दिखाए है। तत्थ णं जे से अगारएविणए से णं पंच अणुव्वयाइ सत्तसिक्खावयाई,।० आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी श्रावक - प्रज्ञप्ति आदि में बारह व्रतों का स्वरूप बताया है लेकिन उन्होने सर्वप्रथम यह बताया कि श्रावक धर्म का आधार सम्यग् दर्शन है क्योंकि आधार के बिना आधेय टिक नहीं सकता है / अत: उसे स्पष्ट करते हुए कहते है। एयस्स मूलवत्थू सम्मत्तं तं च गंठिभेयम्मि। खयउवसमाइ तिविहं सुहायपरिमाणरूवं तु॥५१ यहाँ सम्यक्त्व को श्रावक धर्म की मूल वस्तु कही है। वसन्ति अस्मिन् अणुव्रतादयो गुणा इति वस्तु' इस निरुक्ति के अनुसार जिसके होने पर अणुव्रत आदि रूप गुण निवास करते है उसे वस्तु कहा जाता है। तदनुसार जब उसं सम्यक्त्व की उपस्थिति हो तब उसके आश्रय से ही वे अणुव्रत आदि गुण रहते है उसके बिना नहीं होते, तब वैसी परिस्थिति में उक्त सम्यक्त्व को श्रावक धर्म की मूल वस्तु कहना युक्त ही है। अभिप्राय यह है कि आत्मा के शुभ परिणाम रूप वह सम्यक्त्व जब प्रकट होता है तब जाकर अणुव्रतादि रूप वह श्रावक धर्म हो सकता है उसके बिना सम्भव नहीं है। जीव अजीवादि तत्त्वों पर पूर्ण श्रद्धा होना ही सम्यग् दर्शन है। वह अपूर्वकरण अध्यवसाय के द्वारा कर्मरूप गाँठ के भेदे जाने पर प्रगट होता है। उसके तीन प्रकार है क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक अथवा प्राकारान्तर से अन्य तीन भेद भी है कारक, रोचक और व्यञ्जक।५२ / / इस प्रकार की उपस्थिति में अणुव्रत आदि का ग्रहण संभव है अन्यथा नहीं यही बात 'धर्मबिन्दु५३ श्रावकधर्म प्रकरण तथा समराइच्चकहा५५ में भी वर्णित है। इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थों में पहले सम्यक्त्व को अणुव्रतादि का आधार बताकर पश्चात् बारह व्रत का प्रतिपादन किया है। अब बारहव्रत अर्थात श्रावक धर्मका वर्णन किया जा रहा है जिसमें सर्व प्रथम आगम प्रमाण ऊपर दे दिया है, उन्ही आगम का अनुसरण करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक प्रज्ञप्ति आदि में विस्तार से वर्णन किया है / वह इस प्रकार पंचेव अणुव्वयाइं गुणव्वयाइं च हुंति तिन्नेव। सिक्खावयाइं चउरो, सावगधम्मो दुवालसहा॥५६ तत्थ गिहिधम्मो दुवालसविहो तं जहा पंच अणुव्वयाई, तिन्नि गुणव्वयाई, चतारि सिक्खावयाई ति।५७ गृहस्थ धर्म बारह प्रकार का है उसमें बारों को तीन विभागों में विभक्त किये है पाँच अणुव्रत, तीन [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII IMA चतुर्थ अध्याय | 253]